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________________ ४८०). छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, २, ४, १८८. पडिच्छेदा विसेसाहिया। केत्तियमेत्तण ? पढमवग्गणाए ऊणचरिमवग्गणमेत्तेण । सव्वासु वग्गणासु अविभागपडिच्छेदा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? पढमवग्गणमेत्तेण । ___ सव्वत्थोवा पढमफद्दयस्स जोगाविभागपडिच्छेदा । चरिमफयजोगाविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा। अपढम-अचरिमफद्दयाणं जोगाविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । अचरिमफद्दएसु जोगाविभागपडिच्छेदा विसेसाहिया। अपढमफयाणं जोगाविभागपडिच्छेदा विसेसाहिया । सव्वफद्दयाणं जोगाविभागपडिच्छेदा विसेसाहिया। एवं सुहुमणिगोदस्स जहण्णमुववादट्ठाणं' परूविदं । एवमसंखेज्जाणि जोगडाणाणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि ॥ १८७॥ उववादजोगट्ठाणाणि चोद्दसणं जीवसमासाणं पुध पुध सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि । तेसिं चेव एयंताणुवड्डिजोगट्ठाणाणि च सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि । परिणामजोगट्ठाणाणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि त्ति परूविदं होदि । एवं ठाणसंखापरूवणा समत्ता । अणंतरोवणिधाए जहण्णए जोगट्ठाणे फद्दयाणि थोवाणि ॥ अविभागप्रतिच्छेद उनसे विशेष अधिक हैं। कितने प्रमाणसे अधिक हैं ? चरम वर्गणामेंसे प्रथम वर्गणाको कम करनेपर जो शेष रहे उतने मात्रसे वे अधिक हैं। उनसे सब वर्गणाओंमें अविभागप्रतिच्छेद विशेष अधिक हैं। कितने मात्रसे अधिक हैं ? प्रथम वर्गणाके प्रमाणसे वे अधिक हैं। प्रथम स्पर्धकके योगविभागप्रतिच्छेद सबमें स्तोक हैं। उनसे चरम स्पर्धकके योगाविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं। उनसे अप्रथम-अचरम स्पर्धकोंके योगाविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं। उनसे अचरम स्पर्धकोंमें योगाविभागप्रतिच्छेद विशेष अधिक हैं। उनसे अप्रथम स्पर्धकोंके योगाविभागप्रतिच्छेद विशेष अधिक हैं । उनसे सब स्पर्धकोके योगाविभागप्रतिच्छेद विशेष अधिक हैं । इस प्रकार सूक्ष्म निगोद जीवके जघन्य उपपादस्थानकी प्ररूपणा की है। इस प्रकार वे योगस्थान असंख्यात हैं जो श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र हैं ॥१८७॥ चौदह जीवसमासोंके उपपादयोगस्थान पृथक् पृथक् श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र हैं, उनके ही एकान्तानुवृद्धियोगस्थान भी श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र हैं, परिणामयोगस्थान भी श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र हैं; यह भी इसीसे प्ररूपित होता है । इस प्रकार स्थानसंख्याप्ररूपणा समाप्त हुई। अनन्तरोपनिधाके अनुसार जघन्य योगस्थानमें स्पर्धक स्तोक हैं ॥ १८८ ॥ १ का-ताप्रल्योः ' मुववादं ठाणं ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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