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________________ २५८] छकावंडागमे वेयणाखंड [ १, २, ४, ४७. त्ति । एवं कदे विगलपक्खेवमेत्ताणि चेव अणुक्कस्सट्ठाणाणि उप्पज्जति । जो समऊणुक्कस्सबंधगद्धामेत्तकालं तप्पाओग्गुक्कस्सजोगेण बंधिय पुणो अण्णेगसमए तिपक्खेऊणपुग्विलजोगेण बंधिय बंधगद्धाचरिमसमयहिदो सो एदेण सरिसो । ' एवं पगदि-विगिदिसरूवेण गलिददव्यभागहारं विरलिये सयलपक्खेवं समखंडं करिय दादूण एदेण पमाणेण उवरिमविरलणसव्यरूवधारदेसु अवणिय तत्थ जत्तिया विगलपक्खेवा अस्थि तत्तियमेत्ता जाय परिहायति ताव णेदव्वं । ___ एत्थ विगलपक्व पमाणाणुगमं कस्सामो । तं जहा- हेट्टिमविरलणरूवूणमेत्ताणं पगदि-विगिदिसरूवेण गलिददव्वाणं नदि एगो विगलपक्खवो लब्भदि तो उवरिमविरलणमेत्ताणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए लद्धमत्ता विगलपक्खेवा होति । एत्तियमेत्ते विगलपक्खेवे समयाविरोहेण परिहाइदूण ठिदो च अण्णेगो तप्पा. ओग्गुक्कस्सजोगणुक्कस्सबंधगद्धाए जलचरेसु आउअं बंधिय तत्थुप्पज्जिय कदलीघादं काद्ण परभविआउअं बंधमाणो पुविल्लविगलपक्खेवेसु जेत्तिया सगलपक्खेया अस्थि प्रक्षेप मात्र ही अनुत्कृष्ट स्थान उत्पन्न होते हैं। जो जीव एक समय कम उत्कृष्ट बन्धककाल तक उसके योग्य उत्कृष्ट योगके द्वारा बांधकर पुनः दूसरे एक समय तीन प्रक्षेप कम पूर्वोक्त योग द्वारा बांधकर बन्धककाल के अन्तिम समयमें स्थित है वह इस पूर्वोक्त जीवके सदृश है। इस प्रकार प्रकृति और विकृति स्वरूपसे गले हुए द्रव्यके भागहारका विरलन कर सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर जो प्राप्त हो उस प्रमाणसे उपरिम विरलनके सब अंकोंके प्रति प्राप्त राशिमेंसे घटाकर उसमें जितने विकल प्रक्षेप हैं उतने मात्र प्रक्षेपोंकी हानि होने तक ले जाना चाहिये। यहां विकल प्रक्षेपोका प्रमाणानुगम करते हैं । यथा- अधस्तन विरलन मात्र कम ऐसे प्रकृति-विकृति स्वरूपसे गले हुए द्रव्योंका यदि एक विकल प्रक्षेप प्राप्त होता है तो उपरिम विरलन मात्र अंकों में क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाके अपवर्तित करनेपर जो लब्ध हो उतने मात्र विकल प्रक्षेप होते हैं। इस प्रकार इतने विकल प्रक्षेपोंकी यथाविधि हानि करके स्थित हुआ यह जीव, तथा एक दूसरा जीव जो उसके योग्य उत्कृष्ट योगसे उत्कृष्ट बन्धककालमें जलचरोंमें आयुको बांधकर उनमें उत्पन्न होकर और कदलीघात करके परभविक आयुको बांध रहा है तथा जो पूर्वोक्त विकल प्रक्षेपोंमें जितने सफल प्रक्षेप हैं . आप्रतौ — अणेगसमए तिपक्नेऊण', तापतौ ' अण्णेगसमयातपक्खेऊण ' इति पाठः । २ अ-आप्रत्योः 'विगदि ' इति पाठः । ३ अ आ-काप्रतिषु : विगलिय ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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