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________________ ४, २, ४, ४७. ] यणमहाहियारे वैयणदष्वविद्दाणे सामित्तं [ २५७ माउवदव्वं होदि । तेणेव करणेण एदम्हादो दोसु पदेसेसु परिहीणेसु बिदियमणुक्कस्सदव्वं होदि । तिसु परिहीणेसु तदियअणुक्कस्सपदेसट्ठाणं होदि । एवमेगेगुत्तरपदेस परिहाणिकमेण दव्वं जाव एगविगलपक्खेवमेत्तपदेसा परिहीणा त्ति । एवं हाइदूण' चट्ठिदेण' अण्णो जीवो समऊणुक्क सबंध गद्धामेत्तकालं पुव्विल्लणिरुद्धतप्पा ओग्गुक्कस्सजोगेहि बंधिय पुणे एगसमय पक्खेऊणजे गट्ठाणेण बंधिय जलचरेसुप्पज्जिय कदलीघादं काढूण परभवियाउअं बंधिय उक्कस्सबंधगद्धाचरिमसमयट्ठिदजीवो सरिसो, दोसु वि एगविगलपक्खेवाभावादो । पुल्लिं मो इमं घेतून एग-दोपरमाणु आदिकमेण एगविगलपक्खेवमेत्तपरमाणुपदे साणं परिहाणीए कदाए तत्तियमेत्ताणि चैव अणुक्कस्साणाणि उप्पज्जेति । पुणो देण समऊणुक्कस्सबंधगद्धमित्तकालं तप्पा ओग्गुक्कस्सजोगट्ठाणेहि बंधिय एगसमयं दुपक्खे ऊर्णेजे। गट्ठाणेण बंधिय पयदट्ठाणे ठिदो सरिसो । पुव्विल्लं मात्तूण इमं तू एत्थ एद परमाणुआदिकमेण हीणं करिय दव्वं जाव एगविगलपक्खेवो परिहीणो द्वारा इस उत्कृष्ट द्रव्यमें से दो प्रदेशोंके हीन होनेपर द्वितीय अनुत्कृष्ट द्रव्य होता है । तीन परमाणुओंके हीन होनेपर तृतीय अनुत्कृष्ट प्रदेशस्थान होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक प्रदेशकी हानिके क्रमसे एक विकल प्रक्षेप मात्र प्रदेशों के हीन होने तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार हीन होकर स्थित हुर जीवके साथ एक दूसरा जीव, जो एक समय कम उत्कृष्ट बन्धककाल मात्र कालके भीतर पूर्वोक्त विवक्षित उसके योग्य उत्कृष्ट योगों द्वारा बांधकर पुनः एक समय तक एक प्रक्षेप हीन योगस्थान द्वारा बांधकर जलचरोंमें उत्पन्न होकर कदलीघात करके परभविक आयुको बांधकर उत्कृष्ट बन्धककालके अन्तिम समयमें स्थित है, सहरा है; क्योंकि, उक्त दोनों ही जीवोंमें एक विकल प्रक्षेपका अभाव है । पुनः पूर्वोक्त जीवको छोड़कर और इस दूसरे जीवको ग्रहण कर एक-दो परमाणु आदि के क्रमसे एक विकल प्रक्षेप मात्र परमाणुप्रदेशोंकी हानि करनेपर उतने मात्र ही अनुत्कृष्ट स्थान उत्पन्न होते हैं । पुनः इस जीवके साथ एक समय कम उत्कृष्ट बन्धककाल मात्र काल तक उसके योग्य उत्कृष्ट योगस्थानों द्वारा बांधकर और एक समय तक दो प्रक्षेप कम योगस्थान द्वारा बांधकर प्रकृत स्थानमें स्थित जीव सदृश है । पूर्वोक्त जीवको छोड़कर और इसे ग्रहण कर यहां एक दो परमाणु आदिके क्रमसे हीन करके एक विकल प्रक्षेपके हीन होने तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार करनेपर विकल १ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु 'घाइदूण' इति पाठः । २ प्रतिषु ' चेट्टिदेण' इति पाठः । ३ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिष्वतोऽग्रे ' समऊलुक्कस्साङ्काणाणि उपज्जेति पुणो एदेण' इत्यधिकः पाठोऽस्ति | ४ ताप्रतौ ' एगसमयदुपकवूण ' इति पाठः । वे. ३३. Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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