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________________ २५६] छक्खंडागमे वेयणाखंड । ४, २, १, ४७. उक्कस्सबंधगद्धाए ओवट्टिदे आदेसुक्कस्सजोगट्ठाणदव्वं होदि । तस्स पक्खेवभागहारे उक्कस्सबंधगद्धाए गुणिदे सगलपक्खेवभागहारो होदि । एत्थ एगरूवधरिदं सगलपक्खेतो णाम । एगसगलपक्खेवादो पगडि-विगिदिसरूवेण गलिददोदव्वागमणहेदुभूदसंखेज्जरूवे विरलिय सगलपक्खेवं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि सयलपक्खेवादो पगडि विगिदिसरूवेण गलिददव्वमागच्छदि । एत्थ एगरूवधरिदं मोत्तूण बहुभागाणं विगलपक्खेव इदि सण्णा । पुणो सणिपंचिंदियपज्जत्तयस्स जहण्णपरिणामजोगमादि कादूण जाव उक्कस्सजोगट्टाणेत्ति ताव एदेसिं जोगट्ठाणाणं पक्खेउत्तरकमेण णिरंतरं गदाणं रचणं कादण अणुक्कस्सदव्वपरूवणं कस्सामो । तं जहा - उक्कस्सजोगेण उक्कस्सबंधगाए पुवकोडितिभागम्मि जलचरेसु पुव्वकोडाउअं बंधिदूण कमेण कालं करिय पुवकोडाउअजलचरेसुप्पज्जिय उप्पण्णपढमसमयादो अंतोमुहुत्तं गंतूण जीविदद्धपमाणेण देसूणपुवकोडिआयाममेगसमएण कदलीघादेण घादिय पुणरवि जलचरेसु तप्पाओग्गुक्कस्सजोगेण उकक्स्सबंधगद्धाए च पुव्वकोडाउअबंध पारंभिय बंधगद्धाचरिमसमए वट्टमाणस्स उक्कस्सिया आउवदव्ववेयणा। एत्थ ओलंबणाकरणेण एगपरमाणुम्हि परिहीणे अणुक्कस्सुक्कस्स ............. द्रव्यको उत्कृष्ट बन्धककालसे अपवर्तित करनेपर आदेश उत्कृष्ट योग स्थानका द्रव्य होता है और उसके प्रक्षेपभागहारको उत्कृष्ट बन्धककालसे गुणा करनेपर सकलप्रक्षेपभागहार होता है। यहां विरलन राशिके एक अंकेके प्रति प्राप्त राशिका नाम सकलप्रक्षेप है । एक सकलप्रक्षेपसे प्रकृति व विकृति स्वरूपसे गले हुए दोनों द्रव्योंके लाने में कारणभूत संख्यात अंकोंका विरलन कर सकलप्रक्षेपको सपखण्ड करके देने पर प्रत्येक एकके प्रति सकलप्रक्षेपों ले प्रकृति व विकृति स्वरूपले गला हुआ द्रव्य, आता है। यहां विरलन राशिके एक अंक के प्रति प्राप्त द्रव्यको छोड़कर वहभागोंकी 'विकलप्रक्षेप' यह संज्ञा है। पुनः संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके जघन्य परिणाम योगसे लेकर उत्कृष्ट योगस्थान तक प्रक्षेप उत्तर क्रमसे निरन्तर गये हुए इन योगस्थानोंकी रचना करके अनुत्कृष्ट द्रव्यकी प्ररूपणा करते हैं । यथा- जो जीव उत्कृष्ट योग और उत्कृष्ट बन्धककालके द्वारा पूर्वकोटिके त्रिभागमें जलचरोंमें पूर्वकोटि प्रमाण आयुको बांधकर क्रमसे मरकर पूर्वकोटि आयु युक्त जलचरोंमें उत्पन्न होकर उत्पन्न होने के प्रथम समयसे अन्तर्मुहूर्त जाकर कुछ कम पूर्वकोटि आयुस्थितिको एक समय कदलीघातसे घात कर और उसे उत्पन्न होने के प्रथम समयसे वहां तक जितना जीवन गया है उसके अर्ध प्रमाण करके फिर भी जलचरोंमें उनके योग्य उत्कृष्ट योग और उत्कृष्ट बन्धककालके द्वारा पूर्वकोटि प्रमाण आयुके बन्धका प्रारम्भ करके बन्धककालके अन्तिम समयमें वर्तमान है उसके आयुद्रव्यकी उत्कृष्ट वेदना होती है। इसमेंसे अवलम्बन करण द्वारा एक परमाणुके हनि होनेपर अनुत्कृष्ट आयुद्रव्यका उत्कृष्ट भेद होता है। उसी करणके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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