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________________ १, २, ४, ४७.] बेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं [२५५ गडाचरिमसमए उक्कस्ससामित्तं आवलियाए संखेज्जदिमागमेत्तसमयपबद्धेहि ऊणदुगुणुपकस्सबंधगद्धामेत्तसमयपबद्धे घेत्तूण दिण्णं । तवदिरित्तमणुक्कस्सं ॥४७॥ तदो उक्कस्सादो वदिरित्तदव्यमणुक्कस्सवेयणा । एत्थ अणुक्कस्सदव्वाणं परूवणहमिमा ताव सगल-विगलपक्खेवाणं पमाणपरूवणा कीरदे । तं जहा- सेडीए असंखेज्जदिभागमत्तउक्कस्सजोगपक्खेवभागहारं उक्कस्सबंधगद्धाए गुणिय विरलेदूण उक्करसबंधगद्वामेत्तसमयपत्रद्धेसु समखंडं कादश दिण्णेसु एककेक्कस्स रुवस्स सगलपक्खेवपमाणं पावदि । एदिस्से विरलणाए सगलपक्खेवभागहारो त्ति सण्णा । एत्थ उक्कस्सजोगेण परिणमणकालो उक्कस्सो' दुसमयमेत्तो चेव। तेग उक्करसजोगपक्खेवभागहारस्स उक्कस्सबंधगद्धा गुणगारो ण होदि ति उत्ते सच्चमेदं, किंतु सामण्णेण उत्तं । विसेसे पुण अवलंबिज्जमाणे जेसु जेसु जोगट्टाणेसु उक्कस्सबंधगद्धा पडिबद्धा तेसिं तेसिं जोगट्ठाणाणं पक्खेवभागहोरे मेलाविय विरलिदे सगलपक्खेवभागहारो होदि। अधवा, आउअउक्कस्सदव्वे समयमें उत्कृष्ट स्वामित्व, आवलीके संख्यातवें भाग मात्र समयप्रबद्धोंसे कम दुगुने उत्कृष्ट बन्धककाल मात्र समयमबद्धोंको ग्रहण कर, दिया गया है। उससे भिन्न द्रव्य आयुकी अनुत्कृष्ट वेदना है ॥४७॥ उससे अर्थात् उत्कृष्टसे भिन्न द्रव्य अनुत्कृष्ट वेदना है। यहां अनुत्कृष्ट द्रव्योंके प्ररूपणार्थ पहिले यह सकल और विकल प्रक्षेपोंकी प्रमाणप्ररूपणा की जाती है। यथा-श्रेणीके असंख्यातवें भाग मात्र उत्कृष्ट योग सम्बन्धी प्रक्षेपभागहारको उत्कृष्ट बन्धककालसे गुणा करके विरलन कर उत्कृष्ट बन्धककाळ मात्र समयप्रबद्धाको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति सकल प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है । इस विरलनकी 'सकल प्रक्षेपभागहार'ऐसी संज्ञा है। शंका- यहां उत्कृष्ट योग रूपसे परिणमन करनेका उत्कृष्ट काल दो समय मात्र ही है । इसलिये उत्कृष्ट बन्धककाल उत्कृष्ट योग सम्बन्धी प्रक्षेपभागहारका गुणकार नहीं हो सकता ? | - समाधान- ऐसी आशंका होने पर उत्तर देते हैं कि यह सत्य है, परन्तु वह सामान्यसे कहा है। विशेषका अवलम्बन करनेपर जिन जिन योगस्थानोंके साथ उत्कृष्ट बन्धककाल प्रतिबद्ध है उन उन योगस्थानोंके प्रक्षेपभागहारोंको मिलाकर विरलन करनेपर सकलप्रक्षेपभागहार होता है । अथवा, आयुके उत्कृष्ट भ-जा-काप्रति 'उक्कस्सा' इति पाठः। २ प्रतिषु अवलंबिजमाणेण' इति पाउ: । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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