________________
४ २, ४, २८. ]
वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविज्ञाणे सामित्तं
[ ६७
जोगट्ठाणजीवाणमुवरि तेत्तियमेत्ताणं चेव पवेसदंसणादो । पुणो दुगुणवड्डिजीवेसु तिस्से व विरलणाए समखंड करिय दिण्णेसु रूवं पडि पक्खेवपमाणं पावेदि । णवरि पुव्विल्लपक्खेवादो संपहियपक्खेवा दुगुणो, विहज्जमाणरासिदुगुणत्तादो । एदम्मि पक्खेवे दुगुणवड्डिजीवे पडरासिय पक्खित्ते तदणंतर उवरिमज। गट्ठाणजीवपमाणं होदि । एदं पडिरासिय बिदियपक्खेवे पक्खित्ते तत्तो अंतरउवरिमजोगट्ठाणजीवपमाणं होदि । एवं दव्वं जाव जवमज्झे त्ति । णवरि जीवपक्खेवा पढमगुणहाणिप्पहुडि उवरि सव्वत्थ गुणहाणिं पडि दुगुण-दुगुणा सि वत्तव्वा, अवट्ठिदभागहारत्तादो | तेणेव कारणेण गुणहाणिअद्धाणं पि अवट्ठिदभावेण दट्ठव्वं ।
जघन्य योगस्थानके जीवों के ऊपर उतने मात्र अंकोंका ही प्रवेश देखा जाता है । फिर दुगुणी वृद्धिको प्राप्त हुए जीवोंको उसी विरलनपर समखण्ड करके देने पर प्रत्येक एकके प्रति दूसरे प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है । विशेष इतना है कि पूर्वोक्त प्रक्षेपसे यह प्रक्षेप दुगुणा है, क्योंकि, जो राशि विभक्त करके विरलन राशिके प्रत्येक एकके प्रति दी गई है वह दूनी है। इस प्रक्षेपको दुगुणी वृद्धिको प्राप्त हुए जीवोंको प्रतिराशि करके उसके ऊपर देनेपर उससे आगे के उपरिम योगस्थान के जीवोंका प्रमाण होता है । इसको प्रतिराशि करके इसमें द्वितीय प्रक्षेपके मिलानेपर उससे आगे के उपरिम योगस्थान के जीवोंका प्रमाण होता है । इस प्रकार यवमध्यके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये । विशेष इतना है कि जीवप्रक्षेप प्रथम गुणहानिसे लेकर ऊपर सर्वत्र प्रत्येक गुणहानिके प्रति दुगुणे दुगुणे होते जाते हैं, ऐसा यहां कहना चाहिये, क्योंकि, प्रक्षेपका प्रमाण लानेके लिये जो भागहारका प्रमाण कहा है वह सर्वत्र अवस्थित अर्थात् एक रूप है और इसी कारण से गुणहानिके कालको भी अवस्थित रूपसे जानना चाहिये ।
विशेषार्थ – अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा उक्त विषयका खुलासा इस प्रकार है- गुणहानिका काल ४ है । इसका ११११ इस प्रकार विरलन करके उस पर जघन्य योगस्थानके जीव १६ को विभक्त कर ४ ४ ४ ४ इस क्रम से स्थापित करनेपर प्रत्येक विरलनके प्रति ४ प्राप्त होते हैं । प्रथम प्रक्षेपका यही प्रमाण है । इसे १६ में मिलानेपर २० यह दूसरे योगस्थान के जीवोंकी संख्या होती है । इसमें ४ के मिलानेपर २४ यह तीसरे योगस्थानके जीवोंकी संख्या होती है । इस प्रकार जीवों की संख्या की दूनी वृद्धि होने तक यही क्रम जानना चाहिये । फिर गुणहानिके कालका पूर्ववत् विरलन करके उसपर अन्तमें प्राप्त ३२ इस संख्याको विभक्त कर क्रमसे स्थापित करना चाहिये । इससे द्वितीय प्रक्षेपका प्रमाण ८ उत्पन्न होता है । इस प्रकार यवमध्य के जीवों की संख्या १२८ उत्पन्न होने तक यही क्रम जानना चाहिये । अतः यहां भागद्दार जगश्रेणिका असंख्यातवां भाग अवस्थित रूपसे सर्वत्र विवक्षित है । इसीलिये गुणहानिका काल भी अवस्थित रूपसे ही लिया गया है, क्योंकि, इन दोनोंका परस्परमें सम्बन्ध है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org