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________________ ११) छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ३, १. कारणभेदेण विणा कज्जभेदो अत्थि, अण्णत्थ तहाणुवलंभादो । होदु कज्जभेदेण उदयगयकम्मस्स अट्ठविहत्तं, तदो तस्सुप्पत्तीदो; ण बंध-संताणं, तक्कज्जाणुवलंभादो तिण, उदयट्ठविहत्तणेण उदयकारणसंतस्स संतकारणबंधस्स य अट्ठविहत्तसिद्धीदो । एवं वेवयणाए विहाणं परूविदं । ___ संपहि तण्णामपरूपणं कस्सामो। तं जहा- णाणावरणीयवेयणा ज्ञानमावृणोतीति ज्ञानावरणीयं कर्मद्रव्यम् , ज्ञानावरणीयमेव वेदना ज्ञानावरणीयवेदना । एत्थ तप्पुरिससमासो ण कायव्वो, दव्वट्ठियणएसु भावस्स' पहाणत्ताभावादो । एदेसु णएसु पदाणं समासो वि जुज्जदे, विहत्तिलोवेण एगपदभावुवलंभाँदो एगत्थत्थित्तसणादो च। वेयणासदो वि पादेक्कं पओत्तव्यो, अट्ठण्हं भिण्णवेयणाणं एक्कस्स वेयणासहस्स वाचयत्तविरोहादो। देता है वह कारणभेदके बिना भी बन जायगा, से। ऐसा मानना भी ठीक नहीं है क्योंकि, अन्यत्र ऐसा पाया नहीं जाता है। ( अतः शानावरणीय आदि वेदना आठ प्रकारकी है, यही सिद्ध होता है । ) शंका-कार्यके भेदसे उदयगत कर्म आठ प्रकारका भले ही होओ, क्योंकि, उससे उसकी उत्पत्ति होती है। किन्तु बन्ध और सत्व आठ प्रकारके नहीं हो सकते, क्योंकि, उनका कार्य नहीं पाया जाता। समाधान नहीं, क्योंकि जर उदय आठ प्रकारका है तब उदयका कारण सत्त्व और सत्त्वका कारण बन्ध भी आठ प्रकारका सिद्ध होता है । इस प्रकार वेदनाके भेदोंकी प्ररूपणा की। अब उसके नामोंकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है-ज्ञानावरणीयवेदना, इसका निरुस्त्यर्थ है ज्ञानका जो आवरण करता है वह शानावरणीय कर्मद्रव्य है, और 'शानावरणीय रूप वेदना ही ज्ञानावरणीयवेदना ' है । यहां तत्पुरुष समास नहीं करना चाहिये, क्योंकि, द्रव्यार्थिक नयोंमें भावकी प्रधानता नहीं पायी जाती। इन नयों में पदोंका समास भी योग्य है, क्योंकि, एक तो विभक्ति का लोप हो जानेसे एकपदत्व पाया जाता है और दूसरे उनका एकत्र अस्तित्व भी देखा जाता है । यहां वेदना शब्दका भी प्रत्येकके साथ प्रयोग करना चाहिये, क्योंकि, आठों वेदनायें भिन्न भिन्न हैं इसलिये उनका एक वेदना शब्द वाचक है, ऐसा माननेमें विरोध आता है। १ आप्रतौ ' तप्पुरिससमासो कायव्वो ण दवट्टियणए भावस्स ' इति पाठः । २ प्रतिषु ' एगत्थमस्थिदंसणादो चे' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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