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१, २, ३, २.]
वेयणणामविहाणं संगहस्स अट्टण्णं पि कम्माणं वेयणा ॥२॥ .. एत्थ वेयणाए विहाणं पुव्वं व परूवेदव्वं, अविसेसादो । णामविहाणं उच्चदे । तं जहा- अट्ठण्णं पि कम्माणं वेयणा त्ति वत्तव्वं, अट्ठत्तम्मि णाणावरणादिसयलकम्मभेदसंभवादो एक्कादो वेयणासदादो सयलवेयणाविसेसाविणाभाविएगवेयणाजादीए उवलंभादो, अण्णहा संगहवयणाणुववत्तीदो ।
उजुसुदस्स [णो] णाणावरणीयवेयणा णोदसणावरणीयवेयणा णोमोहणीयवेयणा णोआउअवेयणा णोणामवेयणा णोगोदवेयणा णोअंतराइयवेयणा वेयणीयं चेव वेयणा ॥३॥
उजुसुदस्स पज्जवट्टियस्स कधं दव्वं विसओ ? ण, वंजणपज्जायमहिट्ठियस्स दव्वस्स
संग्रहनयकी अपेक्षा आठों ही कर्मीकी एक वेदना होती है ॥ २ ॥
यहां वेदनाका विधान पूर्वके समान कहना चाहिये, क्योंकि, उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । अब नामविधानका कथन करते हैं । वह इस प्रकार है । आठों ही कर्मोंकी वेदना, ऐसा कहना चाहिये; क्योंकि, आठ इस संख्यामें ज्ञाणावरणादि कमौके सब भेद सम्भव हैं । सूत्रमें जो एक 'वेदना' शब्द कहा है सो उससे वेदनाके सब भेदोंकी अविनाभाविनी एक वेदना जातिका ग्रहण होता है, क्योंकि, इनके विना संग्रह वचन नहीं होता।
- विशेषार्थ-संग्रहनयका काम एक सामान्य धर्म द्वारा अवान्तर सब भेदोंका संग्रह करना है । प्रकृतमें नैगम और व्यवहार नयकी अपेक्षा वेदना आठ प्रकारकी बतलाई है, किन्तु संग्रहनय उन आठों ही कर्मोंकी एक वेदना जाति स्वीकार करता है। क्योंकि, संग्रह नयमें अभेदकी प्रधानता होती है। यही कारण है कि इस नयकी अपेक्षा आठों ही कर्मोकी घटित एक वेदना कही है।
ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा [न] ज्ञानावरणीयवेदना है, न दर्शनावरणीय वेदना है, न मोहनीयवेदना है, न आयुवेदना है, न नामवेदना है, न गोत्रवेदना है और न अन्तरायवेदना है, किन्तु एक वेदनीय ही वेदना है ॥ ३॥
शंका--ऋजुसूत्रनय चूंकि पर्यायार्थिक है अतः उसका द्रव्य विषय कैसे हो सकता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, व्यञ्जन पर्यायको प्राप्त द्रव्य उसका विषय है, ऐसा
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