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________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [ १, २, ३, ३. तव्विसयत्ताविरोहादो। ण च उप्पाद-विणासलक्खणतं तव्विसयदव्वस्स विरुज्झदे, अप्पिदपज्जायभावाभावलक्खण-उप्पाद-विणासवदिरित्तअवठ्ठाणाणुवलंभादो । ण च पढमसमए उप्पण्णस्स बिदियादिसमएसु अवट्ठाणं, तत्थ पढम-बिदियादिसमयकप्पणाए कारणाभावादो । ण च उप्पादो चेव अवट्ठाणं, विरोहादो उप्पादलक्खणभाववदिरित्तअवहाणलक्खणाणुवलंभादो च । तदो अवट्ठाणाभावादो उप्पाद-विणासलक्खणं दव्वमिदि सिद्धं ।। वेदणा णाम सुह-दुक्खाणि, लोगे तहा संववहारदसणादो । ण च ताणि सुह-दुक्खाणि वेयणीयपोग्गलखधं मोत्तूण अण्णकम्मदव्वेहितो उप्पज्जंति, फलाभावेण वेयणीयकम्माभावप्पसंगादो । सम्हा सम्बकम्माणं पडिसेहं काऊण पत्तोदयवेयणीयदव्वं चेव वेयणा ति उत्तं । अट्ठण्णं कम्माणमुदयगदपोग्गलक्खंधो वेदणा त्ति किमé एत्थ ण घेप्पदे १ ण, एदम्हि मानने में कोई विरोध नहीं आता। यदि कहा जाय कि ऋजुसूत्र नयके विषयभूत द्रव्यको उत्पाद विनाशलक्षण मानने में विरोध आता है सो भी बात नहीं है क्योंकि, विवक्षित पर्यायका सद्भाव ही उत्पाद है और विवक्षित पर्यायका अभाव ही व्यय है। इसके सिवा अवस्थान स्वतंत्र रूपसे नहीं पाया जाता । यदि कहा जाय कि प्रथम समयमें पर्याय उत्पन्न होती है और द्वितीयादि समयोंमें उसका अवस्थान होता है सो यह बात भी नहीं बनती, क्योंकि, उसमें प्रथम द्वितीयादि समयोंकी कल्पनाका कोई कारण नहीं है । यदि कहा जाय कि उत्पाद ही अवस्थान है सो भी बात नहीं है, क्योंकि, एक तो ऐसा मानने में विरोध आता है, दुसरे उत्पाद स्वरूप भावको छोड़कर अवस्थानका और कोई लक्षण पाया नहीं जाता। इस कारण अवस्थानका अभाव होनेसे उत्पाद व विनाश स्वरूप द्रव्य है, यह सिद्ध हुआ। घेदनाका अर्थ सुख-दुख है, क्योंकि, लोकमें वैसा व्यवहार देखा जाता है। और वे सुख दुख वेदनीय रूप पुद्गलस्कन्धके सिवा अन्य कर्मद्रव्योंसे नहीं उत्पन्न होते हैं, क्योंकि, इस प्रकार फल का अभाव होनेसे वेदनीय कर्मके अभावका प्रसंग आता है। इसलिये प्रकृतमें सब कौका प्रतिषेध करके उदयगत वेदनीय द्रव्यको ही 'वेदना' ऐसा कहा है। शंका-आठ कर्मोंका उदयगत पुद्गलस्कन्ध वेदना है, ऐसा यहां क्यों नहीं ग्रहण करते? समाधान नहीं, क्योंकि, वेदनाको स्वीकार करनेवाले ऋजुसूत्र नयके अभिप्रायमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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