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________________ ३०८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ४, ७६. ऊणमुक्कस्सदव्वं सत्तमपुढविणेरइयचरिमसमए कादण दुसमऊणपुवकोडिं संजमगुणसेडिणिज्जरं करिय चारित्तमोहणीयं खवेदूण खीणकसायचरिमसमए हिददव्वं पुव्वदव्वेण सरिसं होदि । पुणो तं मोत्तूण इमं घेतूण परमाणुत्तरादिकमेण वड्ढावेदव्यो जाउक्कस्स वेत्ति । एवं वड्डिदूण दिदव्वेण अण्णेगो जीवो गुणिदकम्मंसिओ पुव्वविधाणेण एगसमएण ओकड्डिदूण विणासिज्जमाणदव्वेण ऊणमुक्कस्सदव्वं कादण तिसमऊणपुव्वकोडिं संजमगुणसेडिणिज्जर करिय खीणकसायचरिमसमए विदस्स दव्वं सरिसं होदि । एवं कमेण वड्डाविय ओदारेदव्वं जाव सत्तमपुढविणेरइय चरिमसमए उक्कस्सदव्वं कादण तत्तो णिप्पिडिय मणुस्सेसुप्पज्जिय सत्तमासाहियअट्ठवासाणमुवीर सम्मत्तं संजमं च घेत्तूण खवगसेडिमभुट्टिय खीणकसायचरिमसमए ट्ठिदस्स दव्वेण सरिसं जादेत्ति । एत्तो उरि मणुस्सेसु वड्डी णत्थि । संपहि एदेण सरिसं णेरड्यदव्वं घेत्तर्ण वड्ढाविदे अणंताणि द्वाणाणि एगफद्दएण उप्पण्णाणि ।। संपहि खविदकम्मंसियस्स संतकम्ममस्सिदूण अजहण्णपदेसदब्ववियप्पपरूवणं कस्सामो । तं जहा- खविदकम्मंसियलक्खणेण सुहुमणिगोदेसु पलिदोवमस्स असंखेजदि करके दो समय कम पूर्वकोटि तक संयमगुणश्रेणि द्वारा निर्जरा करके चरित्रमोहनीयका क्षय करके क्षीणकषायके अन्तिम समयमें स्थित होता है । उसका द्रव्य पूर्वोक्त जीवके द्रव्यसे सहश है । पुनः उसको छोड़कर और इसे ग्रहण कर एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे उत्कृष्ट द्रव्य तक बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़कर स्थित द्रव्यके साथ दूसरे एक गुणितकर्माशिक जीवका द्रव्य सदृश होता है, जो पूर्व विधिसे एक समयसे अपर्षण कर विनाश किये जानेवाले द्रव्यसे हीन उत्कृष्ट द्रव्यको करके तीन समय कम पर्वकोटि तक संयमगुणश्रेणि द्वारा निर्जरा करके क्षीणकषायके अन्तिम समय में स्थित होता है। इस प्रकार क्रमसे बढ़ाकर सप्तम पृथिवीस्थ नारकके अन्तिम समय में उत्कृष्ट द्रव्य करके वहांसे निकल कर मनुष्यों में उत्पन्न हो सात मास अधिक आठ वाँके ऊपर सम्यक्त्व व संयमको ग्रहण कर क्षपकश्रेणिपर आरूढ हो क्षीणकषायके अन्तिम समयमें स्थित जीवके द्रव्यके समान हो जाने तक उतारना चाहिये । इसके आगे मनुष्यों में वृद्धि महीं है। अब इसके सदृश नारकद्रव्यको ग्रहण कर बढ़ानेपर एक स्पर्द्धक रूपसे अनन्त स्थान उत्पन्न होते हैं। अब क्षपितकर्माशिकके सत्वका आश्रय कर अजघन्य प्रदेशद्रव्यके विकल्पोंकी प्ररूपणा करते हैं । यथा- क्षपितकौशिक स्वरूपसे पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन कर्मस्थिति प्रमाण काल तक सूक्ष्म निगोद जीवोंमें रहकर पश्चात् पल्योपमके , मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-काप्रतिषु । दबखेतोण ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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