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________________ ४५२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, १८२. (फद्दयपरूवणाए असंखेज्जाओ वग्गणाओ सेडीए असंखेज्जदिभागमेचीयो तमेगं फद्दयं होदि ॥ १८२ ॥ संखेज्जवग्गणाहि एगं फद्दयं ण होदि त्ति जाणावणट्ठमसंखेज्जाओ वग्गणाओ त्ति णिद्दिटुं। पलिदोवम-सागरोवमादिपमाणवग्गणाहि एगं फद्दयं ण होदि त्ति जाणावणटुं सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताहि वग्गणाहि एगं फद्दयं होदि त्ति भाणदं । (फद्दयमिदि किं वुत्तं होदि ? क्रमवृद्धिः क्रमहानिश्च यत्र विद्यते तत्स्पर्द्धकम् । को एत्थ कमो णाम ? सग-सगजहण्णवग्गाविभागपडिच्छेदेहिंतो एगेगाविभागपडिच्छेदवुड्डी, वुक्कस्सवग्गाविभागपडिच्छेदेहिंतो एगेगाविभागपडिच्छेदहाणी च कमो णाम । दुप्पहुडीणं वड्डी हाणी च अक्कमो ।) पढमफद्दयपढमवग्गणाए एगवग्गअविभागपडिच्छेदेहितो बिदियवग्गणाए एग स्पर्धकारूपणाके अनुसार श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र जो असंख्यात वर्गणायें हैं उनका एक स्पर्धक होता है ॥ १८२ ॥ संख्यात वर्गणाओंसे एक स्पर्धक नहीं होता है, इस बातको जतलाने के लिये सूत्र में 'असंख्यात वर्गणायें' ऐसा निर्देश किया है। पल्योपम व सागरोपम आदिके बराबर वर्गणाओंसे एक स्पर्धक नहीं होता, इस बात के ज्ञापनार्थ 'श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र वर्गणाओंसे एक स्पर्धक होता है, ऐसा कहा है। शंका- स्पर्धकसे क्या अभिप्राय है ? समाधान- जिसमें क्रमवृद्धि और क्रमहानि होती है वह स्पर्धक कहलाता है। शंका- यहां 'क्रम' का अर्थ क्या है ? समाधान- अपने अपने जघन्य वर्गके अविभागप्रतिच्छेदोंसे एक एक अविभागप्रतिच्छेदकी वृद्धि और उत्कृष्ट वर्गके अविभागप्रतिच्छेदोंसे एक एक अविभागप्रतिच्छेदकी जो हानि होती है उसे क्रम कहते हैं । दो व तीन आदि अविभागप्रतिच्छेदोंकी हानि व वृद्धिका नाम 3 प्रथम स्पर्धक सम्बन्धी प्रथम वर्गणाके एक वर्ग सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदोंसे द्वितीय वर्गणाके एक वर्ग सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद एक अविभागप्रतिच्छेदसे आधिक १ ताप्रतौ ' क्रमवृद्धि निश्च ' इति पाठः । २ स्पर्धन्त इवोत्तरोत्तरवृद्धथा वर्गणा अत्रेति स्पर्धकम् । क. प्र. (मलय.) 1,6. ३मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु 'सग-सगजहण्णवग्गाविभागपडिग्छेदवुड्डी वुक्कस्सबग्गाविभागपडिच्छेदहाणी च कमो णाम' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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