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________________ ४, २, ४, १८१.] बेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया [ ४५१ जीवपदेसो वग्गणा होदि, जोगाविभागपडिच्छेदेद्दि समाणासेसजीवपदेसाणमेत्थेव अंतभावादो । किंतु सुत्ते एवं ण वुत्तं । पज्जवट्टियणयमवलंबिय सुत्ते किमहं देखणा कदा ? ओकड्डुक्कड्डणाहि हाणि वडीओ जोगस्स होंति त्ति जाणावण कदा | असंखेज्जलोगाविभागपडिच्छेदाणमेया वग्गणा होदि त्ति सुत्ते परूविदं सामण्णेण । तेण एदम्हादो सरिसधणियणाणाजीवपदेसे घेत्तूण एगा वग्गणा होदि त्ति ण णव्वदि' त्ति वृत्ते बुच्चदे - एदेण सुतेण एगोलीए सरिसधणाए चेव वग्गणा त्ति परुविदं, अण्णहा अविभागपडिच्छेदपरूवण-वग्गणपरूवणाणं विसेसाभावप्पसंगादो वग्गणाणमसंखेज्जपदरमे तं परूवणत्तप्पसंगादो च । किं च कसायपाहुडपच्छिमक्खंधसुत्तादो च णव्वदे जहा सरिसघणिय सव्वजीव देसा वग्गणा होदिति । किं तं सुत्तं ? चउत्थसमएँ लोगं पूरेदि । लोगे पुण्णे एगा वग्गणा जोगस्सेर्त्ति । लोगमेत्तजीवपदेसाणं लोगे पुण्णे समजोगो होदित्ति वृत्तं होदि । एवं वग्गणपरूवणा समत्ता । सब जीवप्रदेशका इसमें ही क्योंकि, योगाविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा समान अन्तर्भाव हो जाता है । किन्तु सूत्रमें इस प्रकार कहा नहीं है । शंका - पर्यायार्थिकनयका अवलम्बन करके सूत्र में किसलिये देशना की गई है ? समाधान - अपकर्षण- उत्कर्षण द्वारा योग के हानि और वृद्धि होती है, इस बातको जतलाने के लिये सूत्र में पर्यायार्थिकनयका आलम्बन करके उक्त देशना की गई है । शंका --- असंख्यात लोक प्रमाण अविभागप्रतिच्छेदों की एक वर्गणा होती है, ऐसा सूत्रमै सामान्यसे प्ररूपणा की गई है । इसलिये इससे समान धनवाले नाना जीवप्रदेशों को ग्रहण कर एक वर्गणा होती है, ऐसा नहीं जाना जाता है ? समाधान ऐसा कहनेपर उत्तर देते हैं कि इस सूत्र द्वारा समान धनवाली एक पंक्तिको ही वर्गणा ऐसा कहा गया है, क्योंकि, इसके विना अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा और वर्गणाप्ररूपणामें कोई विशेषता न रहनेका प्रसंग तथा वर्गणाओंके असंख्यात प्रतर मात्र प्ररूपणाका भी प्रसंग आता है। दूसरे, कषायप्राभृतके पश्चिमस्कन्ध अधिकारके सूत्र से भी जाना जाता है कि समान धनवाले सब जीवप्रदेश वर्गणा होते हैं । शंका- वह सूत्र कौनसा है ? - समाधान - ' चतुर्थ समय में लोकको पूर्ण करता है । लोकके पूर्ण होनेपर योगकी एक वर्गणा रहती है ' । लोक मात्र जीवप्रदेशोंके लोकपूरणसमुद्घात होनेपर समयोग होता है, यह अभिप्राय है । इस प्रकार वर्गणाप्ररूपणा समाप्त हुई । १ अ-आ-काप्रतिषु 'सि णव्वदि ' इति पाठः । २ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु ' - पदमत्त ' इति पाठः । ३ साप्रतौ ' 'चउत्थं समए' इति पाठः । ४ तदो उत्समए लोगं पूरेदि । लोगे पुण्णे एक्का नग्गणा जोगस्सेचि समजोगो हि गायत्रो । जयध. ( पू. सु. ) अ. प. ११३९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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