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________________ १९.] ____ छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ४, १९५. दुगुणं विरलिय दुगुणवड्डिजोगट्ठाणं समखंडं करिय दिपणे स्वं पडि एगेगपक्खेवो पावदि । ते घेत्तूण उप्पण्णुप्पण्णजोगट्ठाणं पडिरासिय कमेण पक्खित्ते पुविल्लट्ठाणादो दुगुणमद्धाणं गंतूण चदुग्गुणवड्डी उप्पज्जदि । पुणो जहण्णजोगट्ठाणपक्खेवभागहारं चदुगुणं विरलिय चदुमुणजोगट्ठाणं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि एगेमपक्खेवो पावदि । पुणो एदे घेत्तूण पुव्वं व पक्खित्ते चदुग्गुणमद्धाणं गंतूण अद्वगुणवड्डिजोगट्ठाणमुप्पज्जदि । एवं णेदव्वं जाव उक्कस्सजोगट्ठाणेति । गुणहाणिअद्धाणपमाणजाणावणहूँ णाणागुणहाणिसलागाणं पमाणफ्रूवणटुं च उत्तरसुत्तं भणदि ___ एगजोगदुगुणवड्ढि-हाणिट्टाणंतरं सेडीए असंखेज्जदिभागो, णाणाजोगदुगुणवइढि-हाणिहाणंतराणि पलिदोवमस्स असंखेज्जदि. भागो । १९५॥ एत्थ ताव गुणहाणिअद्धाणपमाणाणयणविहाणं वुच्चदे । तं जहा- एगादिदुगुणदुगुणकमेण णाणागुणहाणिसलागमेत्तायामेण विदरूवाणं | १ | २ | ४ | ८ | १६ । ३२ /६४ | १२८ | २५६ | ५१२ | १०२४ | २०४८ । ४०९६ ) सव्वसमासो एत्तियो होदि 1 ८१९१ | । एदेण जोगट्ठाणद्धाणे | ६५५२८ | भागे हिदे पढमगुणहाणिअद्धाणं सेडीए योगस्थानके प्रक्षेपभागहारका विरलन करके दुगुणी वृद्धि युक्त योगस्थानको समखण्ड करके देनेपर रूपके प्रति एक एक प्रक्षेप प्राप्त होता है । उनको ग्रहण कर उत्तरोत्तर उत्पन्न हुए योगस्थानको प्रतिराशि करके क्रमसे उसमें मिलानेपर पूर्व स्थानसे दुगुणा अध्वान जाकर चतुर्गुणी वृद्धि उत्पन्न होती है। पश्चात् चतुर्गुणित जघन्य योगस्थानके प्रक्षेपभागहारका विरलन करके चतुर्गुणित योगस्थानको समखण्ड करके देनेपर रूपके प्रति एक एक प्रक्षेप प्राप्त होता है । पश्चात् इनको ग्रहण कर पूर्वके ही समान मिलानेपर चौगुणा अध्वान जाकर अठगुणी वृद्धि युक्त योगस्थान उत्पन्न होता है। इस प्रकार उत्कृष्ट योगस्थान तक ले जाना चाहिये । गुणहानिअध्वानप्रमाणके शापनार्थ और नानागुणहानिशलाकाओंके प्रमाणके प्ररूपणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं एक-योग-दुगुणवृद्धि-हानिस्थानान्तर श्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण और नानायोग-दुगुणवृद्धि-हानिस्थानान्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं ॥१९५॥ 'यहां पहले गुणहानिअध्यान के प्रमाणके लाने का विधान कहते हैं। वह इस प्रकार है- एकको आदि लेकर दुगुणे दुगुणे क्रमसे नानागुणहानिशलाका मात्र आयामसे स्थित १+२+४+८+१६ + ३२+ ६४ + १२८+२५६+५१२+१०२४+२०४८+४०९६ रूपोंका सर्वयोग ८१९१ इतना होता है। इसका योगस्थानाध्वानमें भाग देने पर (६५५२८८१९१%3D८) प्रथम गुणहानिका अध्वान श्रेणिके असंख्यातवें भाग आता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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