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________________ २, ४, १९४. ] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविद्दाणे चूलिया [ ४८९ एसा परंपरोवणिधा किमट्ठमागदा ? एवं पक्खेवुत्तरकमेण सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तेसु जोगट्ठाणेसु समुप्पण्णेसु किं जहण्णजोगट्ठाणादो उक्कस्सजोगट्ठाणं विसेसाहियं संखेज्जगुणं असंखेज्जगुणं वेत्ति पुच्छिदे असंखेज्जगुणमिदि जाणावणट्ठमागदा । तं जहाजहण्णजोगट्ठाण पक्खेवभागहारं सेडीए असंखेज्जदिभागं विरलेदूण जहण्णजोगट्ठाणं समखंड कादिणे विरलरूवं पडि एगजोगपक्खेवपमाणं पावदि । पुणो तत्थ एगपक्खेवं तूण जाणं पडिसिय पक्खित्ते' बिदियट्ठाणं होदि । बिदियपक्खेवं घेत्तूण विदियद्वाणं पडिरासिय पक्खित्ते तदियजोगट्ठाणं होदि । पुणो तदियपक्खेवं घेत्तूण तदियजोगट्ठाणं पडिरासिय पक्खित्ते चउत्थजोगट्ठाणं होदि । एवं दव्वं जाव विरलणमेत्तपक्खेवा सव्वे विट्ठति । ता दुगुणवड्डिट्ठाणमुपज्जदि । * एवं दुगुणवढिदा दुगुणवढिदा जाव उक्कस्सजोगट्टाणेत्ति ॥ पुणो पुव्विल्लद्गुणवड्डिजोगट्ठाणपक्खेव भागहारं जहण्णजोगट्ठाणपक्खेव भागहारादो शंका- यह परम्परोपनिधा किसलिये प्राप्त हुई है ? समाधान - उक्त विधिले प्रक्षेप अधिक क्रमसे श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र योगस्थानों के उत्पन्न होनेपर 'उत्कृष्ट योगस्थान क्या जघन्य योगस्थानकी अपेक्षा विशेष अधिक है, संख्यातगुणा है, अथवा असंख्यातगुणा है' ऐसा पूछनेपर वह 'असंख्यातगुणा है ' इस बातके ज्ञापनार्थ परम्परोपविधा प्राप्त हुई है । वह इस प्रकार से - श्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण जघन्य योगस्थानके प्रक्षेपभागहारका विरलन कर जघन्य योगस्थानको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक विरलनरूपके प्रति एक योगप्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है । अब उनमेंसे एक प्रक्षेपको ग्रहण कर जघन्य योगस्थानको प्रतिराशि करके उसमें मिला देनेपर द्वितीय स्थान होता है । द्वितीय प्रक्षेपको ग्रहण कर द्वितीय स्थानको प्रतिराशि करके उसमें मिला देनेपर तृतीय योगस्थान होता है । पश्चात् तृतीय प्रक्षेपको ग्रहण कर तृतीय योगस्थानको प्रतिराशि करके उसमें मिला देने पर चतुर्थ योगस्थान होता है । इस प्रकार विरलन मात्र सब प्रक्षेपोंके प्रविष्ट होने तक ले जाना चाहिये । तब दुगुणी वृद्धिका स्थान उत्पन्न होता है । इस प्रकार उत्कृष्ट योगस्थान तक वे दुगुणी दुगुणी वृद्धिको प्राप्त होते चले जाते हैं ॥ १९४ ॥ अब जघन्य योगस्थानके प्रक्षेपभागहारसे दुगुणे पूर्वोक्त दुगुणवृद्धि युक्त १ अ-आ-काप्रतिषु — पडिरासिपक्खिते ' इति पाठः । २ अ आ-काप्रतिषु नास्य सूत्रत्वसूचकं किमपि चिह्न - मुपलभ्यते । छ. वे. ६२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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