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४, २, ४, ३२.] वेयणमहोहियारे वेयणदध्वविहाणे सामित्त वग्गिय पक्खित्ते एत्तियं होदि । ७३ । । एसा करणिसुद्धं वग्गमूलं ण देदि ति एवं चेव हुवेदव्वा । पुव्विल्लपक्खेवमूलमेक्को । १।। पुव्विल्लरासी जदि रूवगया तो तत्थ एदस्स अवणयणं कीरदे । सा पुण करणिगया त्ति एदिस्से ण तत्थ अवणयणं काउं सक्किज्जदि त्ति पुध द्ववेदम्पा | || सोज्झमाणादो एदिस्से रिणसण्णा । पुणो विगुणेण उत्तरेण भागे घेप्पमाणे करणीए करणी चेव रूवगयरस रूवगय चेव भागहारो हेोदि ति णायादो करणी' चदुहि छेत्तव्वा, रूवगयं दोहि।। | एसो रूवाहियगुणहाणिमेत्तसंकलणाए गच्छो । एसो
घेव रूवाहिओ चडिदद्धाणं होदि ।
संपहि एदम्हादो गच्छादो रूवाहियगुणहाणिमेत्तगोवुच्छविसेसाणमुप्पत्ती उच्चदे । तं जहा- संकलणरासिम्मि छेदो रासी द्धावयाँ (१) हि त्ति दो गच्छा ठवेदब्बा |७३७३ ।।
एत्थ एगरासी रूवं पक्खिविय अद्धेदव्वा त्ति रिणद्धरूवं धण-धणरूवम्हि अवणिय अद्धिदे अर्थात् ७२ + १ = ७३ होता है। इससे करणिशुद्ध वर्गमूल नहीं प्राप्त होता, इसलिये इसे इसी प्रकार रहने देना चाहिये। पहले के प्रक्षेपका वर्गमूल एक है। पहले की राशि यदि रूपगत अर्थात् प्रत्येक हो तो उसमेंसे इसे घटा देना चाहिये । परन्तु वह करणिगत है, इसलिये इसे उसमें से नहीं घटाया जा सकता है। अत एव इसे अलग स्थापित कर देना चाहिये + । शोध्यमान अर्थात् घटाने योग्य होनेसे इसकी ऋण संशा है । फिर दुगुने उत्तरका भाग ग्रहण करते समय करणिगतका करणिगत ही भागहार होता है और रूपगतका रूपगत ही भागहार होता है, इस नियमके अनुसार करणिमें चारसे और रूपगतमें दोसे भाग लेना चाहिये। यह एक अधिक गुणहानि मात्र संकलनका
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गच्छ है। यही एकाधिक करनेपर आगेका स्थान होता है।
अब इस गच्छके आधारसे एक अधिक गुणहानि मात्र गोपुच्छविशेषोंकी उत्पत्ति का कथन करते हैं । यथा- संकलन राशिमेंसे छेद राशि ...
....... (8) इसलिये दो गच्छ स्थापित करना चाहिये ७३ १ ७३ ।। यहां इस राशिमें एक मिलाकर आधी करनी चाहिये। इसलिये ऋणके एक बटे दोको धनधन रूप राशिमेंसे घटा कर आधा करने पर इतना .७३१ होता है। इससे गच्छको दुप्रति
१ प्रतिषु · रूवगच्छियस्स' इति पाठः २ प्रतिषु 'करण' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'रूवगये' इति पाठः । ४ मप्रतौ स्थावया' इति पाठः ।
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