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खंडागमे वैयणाखंड
[ ४, १, ४, ७६.
tood जीवो खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण मणुस्सेसु उववज्जिय सत्तामासाहियअट्ठवासाणमुवरि सम्मत्तं संजमं च घेत्तूण अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजो जिय दंसणमोहणीयं स्वविय खीणकसाओ होदूण संखेज्जडिदिखंडय सहस्साणि घादेदूण पुणो सेसखीणकसायद्धं मोसूण चरिमट्ठिदिखंडयस्स चरिमफालिं घेत्तूण खीणकसायसेसद्धारा उदयादिगुणसे डिकमेण संतुहिय कमेण गुणसेडिं गालिय एगणिसेगमेगसमयकालं धरेद्गे द्विदो त्ति । एवं वडिदे पुणो एदस्स हेट्ठा ओदारेदुं ण सक्कदे, जहण्णत्तं पत्तसव्वद्धासु परिहाणीए करणोवायाभावादो । पुणो एत्थ परमाणुत्तर - दुपरमाणुत्तरकमेण निरंतर मेगो समयपबद्ध । वढावेदव्वो । कुदो ? खविदकम्मंसियम्मि उक्कस्सेण एगो चैव समयपबद्धो वढदि त्ति गुरूवएसादो ।
तदो अण्णा खविद घोलमाणलक्खणेण आगंतूण मणुस्से सुप्पज्जिय सत्तमा साहियअट्ठवासाणमुवरि सम्मत्तं संजमं च जुगवं घेत्तूण सव्वजहण्णेण कालेन संजमगुणसे काढूण खवणाए अब्भुडिय सव्वजद्दण्णखवणकालेण खीणकसाय चरिमसमयद्विदखविदघोलमाणो पुव्विल्लेण सरिसो वि अस्थि ऊणो' वि अस्थि । तत्थ सरिसं घेतूण परमाणुत्तर- दुपरमाणुत्तरादिकमेण अनंत भागवड्डि-असंखेज्जभागवड्डि-संखेज्जभागवड्डि-संखेज्जगुण
तक दूसरा एक जीव क्षपितकर्माशिक स्वरूपसे आकर मनुष्यों में उत्पन्न होकर सात मास अधिक आठ वर्षोंके पश्चात् सम्यक्त्व व संयमको ग्रहणकर अनन्तानुबन्धिचतुष्कका विसंयोजन करके दर्शनमोहका क्षय कर क्षीणकषाय होकर संख्यात हजार स्थितिकाण्डकोंका घातकर पश्चात् शेष क्षीणकषायकालको छोड़कर अन्तिम स्थिति काण्डककी अन्तिम फालिको ग्रहणकर क्षीणकषायके शेष कालमें उदयादि गुणश्रेणिके क्रमसे निक्षेप कर क्रमसे गुणश्रेणिको गलाकर एक समय कालवाले एक निषेकको धरकर स्थित होता है। इस प्रकार वृद्धि होनेपर फिर इसके नीचे उतारमा शक्य नहीं है, क्योंकि, जघन्यताको प्राप्त सब कालों में परिहानि करनेका कोई अन्य उपाय नहीं पाया जाता । पश्चात् यहां एक परमाणु अधिक, दो परमाणु अधिक के क्रमसे निरन्तर एक समयप्रबद्ध बढ़ाना चाहिये, क्योंकि, क्षपितकर्माशिक जीवके उत्कृष्ट रूप से इस प्रकार एक ही समयप्रबद्ध बढ़ाया जा सकता है, ऐसा गुरुका उपदेश है ।
इससे भिन्न क्षपितघोलमान स्वरूपसे आकर मनुष्यों में उत्पन्न हो सात मास अधिक आठ वर्षोंके ऊपर सम्यक्त्व व संयमको एक साथ ग्रहण कर सर्वजघन्य कालसे संयमगुणश्रेणि करके क्षपणा में उद्यत होकर सर्वजघन्य क्षपणकालसे क्षीणकषायके अन्तिम समय में स्थित क्षपितघोलमान जीव पूर्वोक्त जीवके सदृश भी है व हीन भी है। उनमें सशको ग्रहण कर जघन्यसे असंख्यातगुणा प्राप्त होने तक एक परमाणु अधिक, दो परमाणु अधिक इत्यादि क्रमले अनन्त भागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भाग
१ अ आ-काप्रतिषु कृणा' इति पाठ
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