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४, २, ४, ५३ ]
यणमहाडियार देयणदम्बविहाणे सामिल
[ २७३
परमाणूर्ण श्रीवत्तविहाणङ्कं । एत्य उक्करससामित्तम्मि उत्तङ्कं संभरिय थोक्त्तसाहं' कायव्यं । एवमाआवास विदो ।
उवरिल्लीणं ठिदीणं णिसेयरूस जहणपदे हेट्ठिल्लीणं ठिदीणं णिसेयस्स उस्सपदे ॥ ५३ ॥
खवेिद-गुणिद-घोलमाणओकड्डगादो खविदकम्मंसियओकडणा बहुगा | तेर्सि देव उक्कड्डणादो एदस्स उक्कड्डणा थोवा । किमडुं बहुदव्वोकड्डणा कीरदे ? हेडिमगोच्छाभो धूलाओ काऊण बहुदव्वविणासणटुं । अथवा, एदस्स सुत्तस्स अण्णहा अत्थो उम्मदे | तं जहा बंधोकड़डणाहि हेडिल्लीणं ठिदीणं णिसेयस्स उषकस्सपदं उवरिल्लीणं णिसेयस्स जहणपदं होदि तिघेत्तव्वं । भावत्था -- बंधोकडणाहि पदेसरचणं कुणमाणों सव्वजद्दण्णद्विदीए बहुअं देदि । तत्तो उवस्मिद्विदीए विसेसहीणं देदि । एवं दव्यं जाव चरिमट्ठिदिति । एसो एदस्स अत्थो । एदेण पिसेगावासो परुविदो ।
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यहां उत्कृष्ट स्वामित्व कहे हुए अर्था स्मरण कर स्तोकताको सिद्ध करना चाहिये । इस प्रकार आशुआवासकी प्ररूपणा की ।
उपरिम स्थितियोंके निषेकका जघन्य पद और अस्तन स्थितियोंके निषेकका उत्कृष्ट पद करता है ॥ ५३ ॥
पित-गुणित घोलमान के अपकर्षण से क्षपितकर्माशिषका अपकर्षण बहुत है, और उसीके उत्कर्षणसे इसका उत्कर्षणस्तोक है।
शंका-बहुत द्रव्यका अपकर्षण किसलिये करता है ?
समाधान-- अधस्तन गोपुच्छाओंको स्थूल करके बहुत द्रव्यका बिमादा करने के लिये बहुत द्रव्यका अपकर्षण करता है ।
अथवा, इस सूत्रका अन्य प्रकारसे अर्थ कहते हैं। यथा-- बन्ध और अपकर्षण के द्वारा अधस्तन स्थितियोंके निषेकका उत्कृष्ट पद और उपरिम स्थितियोंके निषेकका अन्य पद होता है, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये । भावार्थ यह है कि बम्ध और अपकर्षण द्वारा प्रदेशरचना को करता हुआ सर्वजघन्य स्थितिमें बहुत देता है। उससे परिम स्थिति में एक चय कम देता है । इस प्रकार चरम स्थितिके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये। यह इसका अर्थ है । इसके द्वारा निषेकावासकी प्ररूपणा की।
विशेषार्थ बतलाया गया है
यहां निषेकावासका निर्देश करनेवाले सूत्रका अर्थ दो प्रकारसे अर्थण और ध्यानमें लेकर किया गया है
१ प्रतिष्ठामिषु लीनं शिलेस' इति पा
मे. ३५.
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