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________________ १०.] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ५, २९. भावादो । तदिए विणिरुद्ध ण उप्पज्जदि, तत्तो उवरि चउण्णं खंडाणमभावादो। एवं खंड पडि दोआदिदोउत्तरकमेण खंडामावलिंगं परुवेदव्वं । दुगुणिदहेहिमखंडसलागमेत्तखंडेहि वा परूवेदव्वं । कुदो १ हेहिमखंडसलागमेत्तखंडाणं भागहारस्सुवरि अधियाणमुवलंभादो हेहिमखंडसलागाहि ऊणउक्कस्ससंखेज्जमेत्तखंडाणं' चेव उवरि पवेसदसणादो च ।२।४।६। ८ । १० । १२ । १४ । १६ । १८ । संपघि चरिमखंडजहण्णजोगट्ठाणणिरंभणं कादूण वड्डिपरूवणे कीरमाणे दुगुणुक्कस्ससंखेज्जं रूवूणं विरलेदूण अप्पिदजोगट्ठाणं समखंडं करिय दिण्णे पुव्वखंडेहि सरिसखंडाणि होदूण चेट्ठति । पुब्बिल्लेगखंडपक्खेवभागहारं विरलेदूण उवरिमविरलणाए एगखंडं घेत्तूण समखंडं काद्ण दिण्णे पक्खेवपमाणं पावदि । तत्थेगपक्खेवं घेत्तूण अप्पिदजोगट्टाणं पडिरासिय पक्खित्ते असंखेज्जमागवड्डी होदि । तं पडिरासिय बिदिय [ पक्खेवे ] पक्खित्ते वि असंखेज्जभागवड्डी चेव होदि । एवं ताव असंखेज्जभागवड्डी गच्छदि जाव विरलणमेत्ता पक्खेवा पविट्ठा ति । एत्थ असंखेज्जदिभागवड्डी एक्का चेव, उवरि जोगवाणामावादो । एदं क्योंकि, उत्कृष्ट योगसे ऊपर दोनों खण्डोंका अभाव है। तृतीय खण्डके रहते हुए भी दुगुण वृद्धि नहीं उत्पन्न होती, क्योंकि, उससे ऊपर चार खण्डौंका अभाव है । इस प्रकार खण्ड खण्डके प्रति उत्तरोत्तर दो दो खण्डोंके अभावका हेतु कहना चाहिये । अथवा द्विगुणित अधस्तन खण्डशलाका प्रमाण खण्डोंके द्वारा इसका कथन करना चाहिये, क्योंकि, एक तो अधस्तन खण्डशलाका प्रमाण खण्डोंका भागहारके ऊपर आधिक्य पाया जाता है और दूसरे अधस्तन खण्डकी शलाकाओंसे कम उत्कृष्ट संख्यात मात्र खण्डोंका ही ऊपर प्रवेश देखा जाता है २, ४, ६, ८, १०, १२, १४, १६, १८ । अब अन्तिम खण्डके जघन्य योगस्थानको विवक्षित करके वृद्धिकी प्ररूपणा करते समय एक कम दुगुणे उत्कृष्ट संख्यातका विरलन कर विवक्षित योगस्थानको समखण्ड करके देनेपर पूर्व खण्डोंके सदृश खण्ड होकर स्थित होते हैं। पूर्वोक्त एक खण्ड सम्बन्धी प्रक्षेपभागहारका विरलन कर उपरिम विरलनके एक खण्डको ग्रहण कर समखण्ड करके देनेपर प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है। उसमेंसे एक प्रक्षेपको ग्रहण कर विवक्षित योगस्थानको प्रतिराशि करके मिलानेपर असंख्यातभागवृद्धि होती है । उसको प्रतिराशि कर द्वितीय प्रक्षेपको मिलानेपर भी असंख्यातभागवृद्धि ही होती है। इस प्रकार तब तक असंख्यातभागवृद्धि जाती है जब तक विरलन मात्र प्रक्षेप प्रविष्ट नहीं हो जाते। यहां एक असंख्यातभागवृद्धि ही है, क्योंकि, ऊपर योगस्थानका अभाव है। इस अन्तिम ........................ १ प्रतिषु डाणि- ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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