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________________ ४, २, ४, ७८. ] dr महाहियारे वेयणदवविाणे सामित्तं [ ३१५ एवं वड्डिदूण दिव्वेण अणियट्टिखवगदुचरिमगोवुच्छं धरेदूण दुचरिमसमए द्विदस्स दव्वं सरिसं होदि । एवं णवकबंधेणूण एगेगगुणसेडिगो वुच्छं वढाविण ओदारेदव्वं जाव खइयसम्माइट्ठिपढमसमओ त्ति । पुणो एत्थ वड्डाविज्जमाणे णवकबंवेणूणचारित्तमोहणीयतदणंतरहेमिगुणसे डिगोच्छा सम्मत्तचरिमगोबुच्छा च वढावेदव्त्रा । एवं वड्ढिददव्वेण अण्ण जीवस्से खविद कम्मंसियलक्खणेणागंतूण मणुस्सेसुववज्जिय सत्तमा साहियअट्ठवासाणमुवरि सम्मत्तं संजमं च घेत्तूण पुणो अणताणुबंधिचदुक्कं विसंजोइय दंसणमोहणीयं खविय कदकरणिज्जो होतॄण कदकरणिज्जचरिमसम वट्टमाणस्स दवं सरिसं होदि । एवं णवकबंवेणूणचारित्तमोहणीयगुणसेडिगावुच्छं सम्मत्तगुण से डिगोवुच्छं च वड्डाविय ओदारेदव्वं जाव कदकरणिज्जपढमसमओ चि । पुणो एत्थ तदणंतरगुणसेडिगोवुच्छं वड्ढिदूण ङिददव्वेण तदणंतरगुणसे डिगो वुच्छ्रं सम्मत्तचरिमफालिं ओदरिदूण दिस्स दव्वं सरिसं होदि । एवं गुणसेडिगोवुच्छं वढावेदूण ओदारेदव्वं जाव संजदपढमसमओ त्ति । णवरि उवसमसम्मादिट्ठिम्मि सम्मत्तगोवुच्छा ण वढावेदव्वा, तिस्से तत्थ उदयाभावादो । संपधि संजद पढमसमए स्थित हुए जीवके द्रव्यके साथ अनिवृत्तिकरण क्षपककी द्विचरम गोपुच्छाको लेकर द्विचरम समय में स्थित जीवका द्रव्य सदृश होता है । इस प्रकार नवक बन्ध से हीन एक एक गुणश्रेणिगोपुच्छाको बढ़ाकर क्षायिकसम्यग्दृष्टि के प्रथम समय तक उतारना चाहिये । पुनः यहां बढ़ाते समय नवक बन्धसे रहित चारित्र मोहनीय की तदनन्तर अधस्तन गुणश्रेणिगोपुच्छा और सम्यक्त्वप्रकृतिकी अन्तिम गोपुच्छा बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार वृद्धिंगत द्रव्यके साथ क्षपित कर्माशिक स्वरूप से आकर मनुष्यों में उत्पन्न होकर सात मास अधिक आठ वर्षोंके ऊपर सम्यक्त्व व संयमको ग्रहण कर पश्चात् अनन्तानुबन्धिचतुष्ककी विसंयोजना करके दर्शन मोहनीयका क्षय कर कृत करणीय होकर कृतकरणीय होने के अन्तिम समय में वर्तमान अन्य जीवका द्रव्य सद्दश है। इस प्रकार नवक बन्धसे रहित चारित्र मोहनीयके गुणश्रेणिगोपुच्छको और सम्यक्त्व प्रकृतिके गुणश्रेणिगोपुच्छको बढ़ाकर कृतकरणीयके प्रथम समय तक उतारना चाहिये । पश्चात् यहां तद्नन्तर गुणश्रेणिगोपुच्छ बढ़ाकर स्थित द्रव्यके साथ तदनन्तर गुणश्रेणिगोपुच्छ युक्त सम्यक्त्व प्रकृतिकी अन्तिम फालि उतर कर स्थित जीवका द्रव्य सदृश है । इस प्रकार गुणश्रेणिगे। पुच्छको बढ़ाकर संयतके प्रथम समय तक उतारना चाहिये । विशेष इतना है कि उपशमसम्यग्दृष्टिके सम्यक्त्व प्रकृति की गोपुच्छाको नहीं बढ़ाना चाहिये, क्योंकि, उसका वहां उदय नहीं है । अब संयत के प्रथम समय में ज्ञानावरण के विधान से १ अ आ-काप्रतिषु दीवस्स ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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