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११६] छक्खडागमे वेयणाखंड
[ १, २, ४, ७९. णाणावरणविहाणेण वड्डाविय णेरइयदव्वेण सद्वियं' घेत्तव्यं । एत्थ जीवसमुदाहारे भण्णमाणे णाणावरणीयभंगो।
सामित्तेण जहण्णपदे वेदणीयवेयणा दव्वदो जहणिया कस्स ? ॥ ७९ ॥
सुगममेदं ।
जो जीवो सुहमणिगोदजीवेसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणियकम्महिदिमच्छिदो ॥ ८० ॥
सुगमं ।
तत्थ य संसरमाणस्स बहुआ अपज्जत्तभवा, थोवा पज्जत्तभवा ॥८१॥ दीहाओ अपज्जत्तद्धाओ, रहस्साओ पज्जत्तद्धाओं ॥२॥ जदा जदा आउअंबंधदि तदा तदा तप्पाओग्गउक्कस्सएण जोगेण बंधदि ॥८३॥ उवरिल्लीणं ठिदीणं णिसेयस्स जहण्णपदे हेट्ठिल्लीणं
बढ़ाकर नारक द्रव्यके सदृश ग्रहण करना चाहिये । यहां जीवसमुदाहारका कथन करते समय उसका कथन ज्ञानावरणीयके समान है।
___ स्वामित्वसे जघन्य पदमें वेदनीयवेदना द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य किसके होती है १ ॥७९॥
यह सूत्र सुगम है।
जो जीव सूक्ष्म निगोद जीवोंमें पल्यापमके असंख्यातवें भागसे हीन कर्मस्थिति तक रहा है ॥ ८० ।।
यह सूत्र सुगम है।
उनमें परिभ्रमण करनेवाले उक्त जीवके अपर्याप्त भव बहुत और पर्याप्त भव स्तोक हैं ॥८१॥ अपर्याप्तकाल दीर्घ और पर्याप्तकाल थोड़ा है ॥ ८२ ॥ जब जब आयुको बांधता है तब तब तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट योगसे बांधता है ॥८३॥ उपरिम स्थितियों के निषकका जघन्य पद और अधस्तन स्थितियोंके निषेकका उत्कृष्ट
१ अ-आ-काप्रतिषु 'सस्थिय,,ताप्रती 'संधिय' इति पाठः। २ अ-आ-काप्रतिषु ' संसरिदणस्स पति पास। ३ अ-आ-काप्रतिषु 'पज्जतद्धा' इति पाठः। ४ अ-आ-काप्रतिषु 'द्विवणिं' इत्येतत्पदं नोपलम्भते । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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