SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 348
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ३२० ५, २, १, १०९.] वेयणमहाहियारे वेयणदग्वविहाणे सामित्त एत्थ पिल्लेवणाणाणं परूवणाए उवसंहारपरूवणाए च णाणावरणभंगो । तव्वदिरित्तमजहण्णा ॥ १०९॥ ___ एत्थ खविद-गुणिदकम्मंसियाणं कालपरिहाणीए अजहण्णपदेसपरूवणे कीरमाणे णाणावरणभंगो। णवरि खविदकम्मंसियलक्खणेण गुणिदकम्मंसियलक्खणेण वा आगंतूण सत्तमासहियअठ्ठवासाणमुवरि संजम घेत्तूण अंतोमुहुत्तेण चरिमसमयभवसिद्धिओ जादो त्ति ओदारदव्वं । पुणो एवमोदारिय चरिमसमयणेरइयदव्वेण संपधियउक्कस्सं कादूण घेतव्वं । ___ संपहि खविदकम्मंसियस्स संतमस्सिद्ग अजहण्णदव्वपरूवणं भणिस्सामो। तं जहा - खविदकम्मंसियलक्खणेण आगंतूण भवसिद्धियचरिमसमए हिदजीवजहण्णदन्वस्सुवरि परमाणुत्तरादिकमेण अणंतभागवड्ढि-असंखेज्जभागवड्ढाहि तदणंतरहेहिमगुणसेडिगोवुच्छमेत्तं वड्डिय विदो च, तद। अण्णो जीवो केवलिगुणसेडिणिज्जरं कादण भवसिद्धियदुचरिमसमयट्टिदो च, सरिसा । एवमोदारेदव्वं जाव अजोगिपढमसमओ त्ति । पुणो भजोगिपढमसमए तदणंतरहेटिमगुणसेडिगोवुच्छा वढावेदव्वा । एवं वविद्ण हिदो च, यहां निर्लेपनस्थानोंकी प्ररूपणा तथा उपसंहारकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है। इससे भिन्न उसकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा अजघन्य होती है ॥ १०९॥ यहां क्षपितकौशिक और गुणितकौशिकके कालपरिहानिकी अपेक्षा अजघन्य प्रदेशोंकी प्ररूपणा करते समय शानावरणके समान कथन है। विशेष इतना है कि क्षपितकांशिक रूपसे अथवा गुणितकौशिक रूपसे आकर सात मास अधिक आठ घर्षोंके ऊपर संयमको ग्रहण कर अन्तर्मुहूर्तमें अन्तिम समयवर्ती भवसिद्धिक हुआ कि उतारना चाहिये। पश्चात् इस प्रकार उतार कर अन्तिम समयवर्ती नारकके द्रव्यसे साम्प्रतिक द्रव्यको उत्कृष्ट करके ग्रहण करना चाहिये। अब क्षापतकमांशिकके सत्त्वका आश्रय कर अजघन्य द्रव्यकी प्ररूपणा करते हैं। यथा-क्षपितकौशिक रूपसे आकर भवसिद्धिक होने के अन्तिम समयमें स्थित जीवके जघन्य द्रव्यके ऊपर उत्तरोत्तर एक परमाण अधिक आदिके क्रम अनन्तभागवृद्धि और असंख्यातभागवृद्धि द्वारा तदनन्तर अधस्तन गुणश्रेणिगोपुच्छ मात्र बढ़ाकर स्थित हुआ जीच, तथा उससे भिन्न केवलिगुणश्रेणिनिर्जराको करके भवसिद्धिक होनेके द्विचरम समयमें स्थित हुआ एक दूसरा जीव, ये दोनों सदृश हैं। इस प्रकार अयोगी होनेके प्रथम समय तक उतारना चाहिये । पुनः अयोगी होने के प्रथम समयमें तदनन्तर अधस्तन गुणश्रेणिगोपुच्छा बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार १ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु ' चरिम' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy