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________________ ३३६ ] [ ४, २, ४, १०८. होण सेलेसि पडिवज्जदि । समुच्छिण्णकिरियमणियट्टिसुक्कज्झाणं झायदि' । तदो देवदिवेउब्विय-आहार-तेजा-कम्मइया सरीर-समच उरस संठाण-वेउव्विय-[आहार-] सरीरअंगोवंग-पंचवण्ण-पंचरस-पसत्थगंध-अट्ठफास- देवगइपाओग्गाणुपुव्वि - अगुरुअलहुअ - परघा दुस्सास-पसत्थविहायगइ-पत्तेयसरीर-थिराथिर - सुभासुभ-सुस्सर- अजसकिति णिमिणमिदि चालीसदेवगदिसहगदाओ, अण्णदरवेदणीय-ओरालियस रीर-पंच संठाण - ओरालिय सरीर अंगो वंग-छसंघडण - मणुस्सगइपाओगाणुपुव्वि-पंचवण्ण-पंचरस अप्पसत्यगंध - अप्पसत्यविहायगदि उवघाद - अपज्जत्तदुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदमिदि तेत्तीस पयडीओ मणुसगदिसहगदाओ एवमेदाओ तेइत्तरिपयडीओ अजोगिस्स दुर्घरिमसमए विणासिय अण्णदरवेदणीय- मणुस्सा उ-मणुस्सगदिपंचिंदियजादि-तप्त-बाद- पज्जत्त-सुभगादेज्ज - जसकित्ति-[ तित्थयर]- उच्चागोदेहि सह चरिमसमयभवसिद्धिओ जादो । तस्स चरिमसमयभवसिद्धियस्स वेदणीयवेदणा जहण्णा ॥ १०८ ॥ छक्खडागमे वैयणाखंड और समुच्छिन्नक्रिया अनिवृत्ति शुक्ल ध्यानको ध्याता है । तत्पश्चात् देवगति, वैक्रियिक, आहारक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रियिक [ व आहारक ] शरीरांगोपांग, पांच वर्ण, पांच रस, प्रशस्त गन्ध, आठ स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, अयशकीर्ति और निर्माण, ये चालीस देवगतिके साथ रहनेवाली; तथा अन्यतर वेदनीय, औदारिकशरीर, पांच संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, छह संहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, पांच वर्ण, पांच रस, अप्रशस्त गन्ध, अप्रशस्त विहायोगति, उपघात, अपर्याप्त, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र, ये तेतीस प्रकृतियां मनुष्यगतिके साथ रहनेवाली; इस प्रकार इन तिहत्तर प्रकृतियोंका अयोगीके द्विचरम समय में विनाश करके दोमे से एक वेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशकीर्ति, [तीर्थकर ] और उच्चगोत्र के साथ अन्तिम समयवर्ती भवसिद्धिक हुआ । उस अन्तिम समयवर्ती भवसिद्धिकके वेदनीयकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य होती है ॥ १०८ ॥ २ प्रतिषु ' एदेसि' इति पाठः । तदो अंतोमुहुत्तं सेलेर्सि पडिवज्जाद । ततोऽन्तर्मुहूर्तमयोगिकेवली भूत्वा शैलेश्यमेष भगवानलेश्यभावेन प्रतिपद्यत इति सूत्रार्थः । किंपुनरिंदं शैलेश्यं नाम ? शीलानामीशः शैलेशः, तस्य भावः शैलेश्यं सकलगुण शीलानामैकाधिपत्य प्रतिलम्भनमित्यर्थः । जयध. अ. प. १२४६ ष. खं. पु. ६, पृ. ४१७. २ समुच्छिष्णकिरियामणियट्टिक्कज्झाणं झायदि । क्रियानामयोगः समुच्छिन्ना क्रिया यस्मिन् तत्समुच्छिन्नक्रियम्, न निवर्त्तत इत्येवं शीलमनिवर्ति, समुच्छिन्नक्रियं च तदनिवर्ति च समुच्छिक्रियनिवर्ति । समुच्छिन्नसर्ववाङ्मनस्काययोगव्यापारत्वादप्रतिपातित्वाच्च समुच्छिन्नक्रियस्यायमन्त्यं शुक्लध्यान मलेश्या चलाधानं कायत्रयबन्धनिर्मोचनै कफलमनुसंधाय स भगवान् ध्यायतीत्युक्तं भवति । जयध. भ. प. १२४६. ३ अत्रायोगिकेवली द्विचरमसमये अनुदयवेदनीयदेवगतिपुरस्सराः द्वासप्ततिः प्रकृतीः क्षपयति, चरमसमये सोवयवेदनीय मनुष्यायु-मनुष्यगतिप्रभृतिकास्त्रयोदशप्रकृतीः क्षपयतीति प्रतिपत्तव्यम् । जयभ. अ. प. १२४७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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