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________________ २२४ ) छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ४, ३४ अवहिरिज्जंति, जहण्णट्ठाणजीवेहि सव्वट्ठाणजीवेमु भागे हिदेसु लद्धमि आणंतियदंसणादो। एवं सव्वट्ठाणजीवाणं पुध पुध अवहारो वत्तव्यो। अधवा जहण्णट्ठाणजीवा सब्वट्ठाणजीवाणमणंतिमभागो। उक्कस्सट्ठाणजीवा वि सम्वट्ठाणजीवाणमणंतिमभागो । अजहण्णअणुक्कस्सट्ठाणेसु जीवा सव्वजीवाणमंणता भागा । तेण जहण्णुक्कस्सट्ठाणाणमवहारो अणतो, अजहण्णअणुक्कस्सैट्ठाणाणमवहारो एगरूवमेगरूवस्साणंतिमभागो च भागहारों होदि । अवहारपरूवणा गदा। भागाभागस्स अवहारभंगो । सव्वत्थोवा जहण्णए ठाणे जीवा । उक्कस्सए ठाणे जीवा असंखेज्जगुणा । अजहण्णअणुक्कस्सएसु हाणेसु जीवा अणंतगुणा । अणुक्कस्सएसु ट्ठाणेसु जीवा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? जहण्णट्टाणजीवमेत्तेण । अजहण्णट्ठाणेसु जीवा जहण्णट्ठाणजीवेहि ऊणउक्कस्सट्ठाणजीवेहि विसेसाहिया । सव्वेसु डाणेसु जीवा जहण्णट्ठाण. जीवमेत्तेण विसेसाहिया । एवं छण्णं कम्माणमाउववज्जाणं ॥३४॥ जहा णाणावरणीयस्स उक्कस्साणुक्कस्सदव्वाणं परूवणा कदा तहा आउववज्जाणं सब स्थानवर्ती जीवोंके प्रमाणमें भाग देनेपर लब्ध रूपसे अनन्तकी उत्पत्ति देखी जाती है। इस प्रकार सब स्थानों में स्थित जीवोंका पृथक् पृथक् अवहार कहना चाहिये । अथवा, जघन्य स्थानके जीव समस्त स्थानोंके जीवोंके अनन्तवें भाग हैं। उत्कृष्ट स्थानके जीव भी समस्त स्थानों सम्बन्धी जीवोंके अनन्तवें भाग हैं। अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थानों में स्थित ज.व सब जीवोंके अनन्त बहुभाग हैं । इसलिये जघन्य और उत्कृष्ट स्थानोंका अवहार अनन्त है, तथा अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थानोंका अवहार एक अंक और एकका अनन्तवां भाग है। अवहारप्ररूपणा समाप्त भागाभागकी प्ररूपणा अवहारके समान है । जघन्य स्थानमें जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे उत्कृष्ट स्थानमें जीव असंख्यातगुणे हैं । अजघन्य -अनुत्कृष्ट स्थानों में उनसे अनन्तगुणे जीव हैं । उनले अनुत्कृष्ट स्थानों में विशेष अधिक जीव हैं । शंका- कितने प्रमाणसे विशेष अधिक हैं ? समाधान- जघन्य स्थानमें जितने जीव हैं उतने मात्रसे विशेष अधिक हैं। उनसे अजघन्य स्थानोंमें जघन्य स्थानके जीवोंसे हीन उत्कृष्ट स्थान सम्बन्धी जीवाँसे विशेष अधिक है । उनसे सब स्थानों में जीव जघन्य स्थान सम्बन्धी जीवोंके प्रमाणसे विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार आयु कर्मके सिवा शेष छह कर्मोंका कथन करना चाहिये ।' ३४॥ जिस प्रकार ज्ञानावरणीयके उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट द्रव्यकी प्ररूपणा की गई है उसी १ प्रतिषु 'अहम्मि' इति पाठः । २ ताप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-काप्रतिषु · अजहणमशक्कास-' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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