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________________ ३६८ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, २, ४, १२२. सादिरेयपुव्वकोडीए ओवट्टिदाए लद्धं तम्हि चेव सोहिदे सुद्धसेसा तदित्थविगलपक्खेवभागहारो होदि । एदेण सगलपक्खेवं खंडेदूण तत्थ एगखंडं सगलपक्खेवभागहारमेत्तसगलपक्खेवेसु सोहिदूण पुध द्वविय पुणो एदे सगलपक्खेवे कस्सामो। तं जहाएसभागहारमेत्तविगलपक्खेवेसु जदि एगो सगलपक्खेवो लब्भदि तो सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तविगलपक्खेवेसु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए पयदगोवुच्छाए सयलपक्खेवा होति । एहि जोगट्ठाणद्वाणं वुच्चदे । तं जहा- एगसकलपक्खवेसु जदि चरिमणिसेयभागहारस्स किंचूणद्धमत्तजोगट्ठाणद्धाणं लब्भदि तो सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तसगलपक्खेवेसु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए जोगट्ठाणद्धाणं होदि। एत्तियमेत्तजोगट्ठाणाणं चरिमजोगट्ठाणेण बंधिदूणागद दुचरिमसमयतिरिक्वदव्वं, पुणो जपणजोग-जहण्णबंधगद्धवाहि णिरय-तिरिक्खाउआणि बंधिणागदतिरिक्खतिचरिमसमयहिदतिरिक्खदव्वं च, सरिसाणि । एदेण कमेण विगलपक्खेवभागहारं अप्पिदगोवुच्छभागहारं जोगट्टाणद्धाणं च जाणिदूण ओदारेदव्वं जाव अट्ठमीए आगरिसाए णिरयाउअं बंधिय तिस्से चरिमसमए वट्टमाणो त्ति। साधिक पूर्वकोटिको अपवर्तित करनेपर लब्धको उसीमेंसे कम कर देना चाहिये । ऐसा करनेसे जो शेष रहे वह वहांके विकल प्रक्षेपका भागहार होता है। इससे सकल प्रक्षेपको खण्डित कर उनमें से एक खण्डको सकल प्रक्षेपके भागहार प्रमाण सकल प्रक्षेपोंमेंसे घटा करके पृथक स्थापित कर फिर इनके सकल प्रक्षेप करते हैं। यथा- इस भागहार प्रमाण विकल प्रक्षेपोंमें यदि एक सकल प्रक्षेप प्राप्त होता है तो श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र विकल प्रक्षेपोमें कितने सकल प्रक्षेप प्रा प्रकार प्रमाणले फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर प्रकृत गोपुच्छर पुच्छके सकल प्रक्षेप होते हैं। अब योगस्थानाध्वानका कथन करते हैं। यथा- एक सकल प्रक्षेपोंमें यदि चरम-निषेक-भागहारके अर्ध भागसे कुछ कम योगस्थानाध्वान पाया जाता है तो श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र सकल प्रक्षेपोंमें कितना योगस्थानाध्वान पाया जायगा, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर योगस्थानाध्वान प्राप्त होता है। इतने मात्र योगस्थानों सम्बन्धी चरम योगस्थानसे आयुको बांधकर आये हुए द्विचरम समयवर्ती तिर्यचका द्रव्य, तथा जघन्य योग और जघन्य आयुबन्धककालस नारक या तिथंच आयुको बांधकर आये हुए तिर्यच भवके त्रिचरम समयमें स्थित तिर्यचका द्रव्य, दोनों सदृश हैं। इस प्रकार विकल-प्रक्षेप-भागहार, विवक्षित गोपुच्छके भागहार और योगस्थानाध्वानको जानकर आठवें अपकर्षमें नारकायुको बांधकर उसके चरम समयमें वर्तमान होने तक उतारना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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