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________________ ४, २, ४, २१३.] वैयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया ५०९ वरणदव्वं सरिसं जाद' ति । पुणो छव्विहबंधगहिदजोगट्ठाणादो हेट्ठिमट्ठाणेसु उप्पण्णअपुणरुत्तट्ठाणाणि भणिस्सामो । तं जहा- छसु जोगट्ठाणेसु जदि पंचअपुणरुत्तपदेसबंधट्ठाणाणि लब्भंति तो सत्तभागहीणजोगट्ठाणेसु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए सव्वजोगट्ठाणाणं पंच-सत्तभागा लभंति | ५ । पुणो छविहबंधगे पक्खेवुत्तरकमेण उवरिमजोगट्ठाणे बंधाविदे सत्तभागमेत्तपदेसबंध- हाणाणि लब्भंति । पुणो एदाणि पुग्विल्लट्ठाणेसु [ पक्खित्ते ] छ-सत्तभागमेतपदेसबंधट्ठाणाणि लभंति | ६ || अट्ठविह-छविहबंधगाणं सण्णिकासो णत्थि, पुणरुत्तपदेसबंधट्ठाणुप्पतीदो । एत्थ | 9 पुणरुत्तकारणं जाणिदूण वत्तव्वं । |१|७|६ | एदेसिं सरिसच्छेदं कादण मेलाविदे एत्तिय होदि | २ ।। पुणो एदेसिम-||८|७] संखेज्जदिभागमेत्ताणि आउअबंधस्स चउविहः | ४१ बंधस्स च अप्पाओग्गाणि उववाद एयंताणुवड्डिजोगट्ठाणाणि एत्थ पक्खिविदव्वाणि । १५ एवं पक्खित्ते जोगट्ठाणेहितो णाणावरणीयस्स पदेसबंधट्ठाणाणि पयडिविसेसेण विसेसाहियाणि त्ति अब पविध बन्धकमें स्थित योगस्थानसे नीचेक स्थानों में उत्पन्न अपुनरुक्त स्थानोंको कहते हैं। यथा- छह योगस्थानों में यदि पांच अपुनरुक्त प्रदेशबन्ध. स्थान पाये जाते हैं तो सातवें भागसे हीन योगस्थानोंमें वे कितने पाये जायेंगे, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर सब योगस्थानोंके सात भागोंमेसे पांच भाग प्राप्त होते हैं-७ । पश्चात् षड्विध बन्धकको प्रक्षेप अधिक क्रमसे उपरिम योगस्थानके बंधानेपर सातवें भाग मात्र प्रदेशबन्धनस्थान पाये जाते हैं । अब इनको पूर्वके स्थानों में मिलानेपर सात भागों से छह भाग प्रमाण प्रदेशबन्धस्थान प्राप्त होते हैं ५ + 1 = । अविध और षड्विध बन्धकोंमें समानता नहीं है, क्योंकि, वहां पुनरुक्त प्रदेशबन्धस्थानोंकी उत्पत्ति है। यहां पुनरुक्त होनेके कारणको जानकर कहना चाहिये । १ + + १ इनके समान छेद करके मिलानेपर इतना होता है ५६+६+६८ ५३ = २६६ । अब इसमें इनके असंख्यातवें भाग मात्र आयुबन्ध और चतुर्विध बन्धके अयोग्य उपपाद और एकान्तानुवृद्धि योगस्थानों को मिलाना चाहिये। इस प्रकार मिलानेपर योगस्थानोंकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयके प्रदेशबन्धस्थान प्रकृतिविशेषसे विशेष अधिक है, यह सिद्ध होता है। इसी प्रकार शेष कौके भी सम्बन्ध में मा-मामति 'मायो 'इति पाठा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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