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________________ । ५०८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, २, ४, २१३. संपहि सत्तसु जोगहाणेसु जदि छ-अपुणरुत्तपदेसबंधट्ठाणाणि लब्भंति तो अट्ठमभागहीणसव्वजोगट्ठाणाणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए सव्वजोगट्ठाणाणं छ-अट्ठभागा लभंति | ६ || पुणो सत्तविहबंधगे पक्खेवुत्तरकमेण उवरिमजोगट्ठाणेहि बंधाविदे सव्वजोगट्ठा- |८|णाणमट्ठमभागमेत्तपदेसबंधगट्ठाणाणि णाणावरणीयस्स लब्भंति | १.।। पुणो एदं पुन्विल्लट्ठाणेसु पक्खित्ते सत्त-अट्ठभागा होति |७|| संपहि एत्थ | ८| एत्तियाणि चेव णाणावरणपदेसबंधट्ठाणाणि लद्धाणि । ८ संपहि सत्त-छविहबंधगे अस्सिदूण लब्भमाणहाणाणं परूवणं कस्सामो । तं जहाजहण्णजोगट्ठाणेण बंधमाणछविहबंधगणाणावरणीयदवेण तत्तो छब्भागुत्तरजोगट्ठाणेण बंधमाणसत्तविहबंधगणाणावरणदव्वं सरिसं होदि। पुणो सत्तपक्खेवाहियजोगट्ठाणेण बंधमाणसत्तविहबंधगस्स णाणावरणीयदव्वेण छविहबंधगस्स छजोगट्ठाणाणि चडिदूण बंधमाणस्स णाणावरणदव्वं सरिसं होदि। एत्थ पंचपदे संबंधट्ठाणाणि अपुणरुत्ताणि लभंति । छटुं पुणरुतं, तेण तमवणेदव्वं । एवं णेदव्वं जाव उक्कस्सजोगट्ठाणेण सत्तबंधमाणणाणावरणीयदव्वेण उक्कस्सट्ठाणादो सत्तमभागहीणजोगहाणेण बंधमाणछविहबंधगस्स णाणा अब सात योगस्थानों में यदि छह अपुनरुक्त प्रदेशबन्धस्थान पाये जाते हैं तो आठवें भागसे रहित सब योगस्थानों में कितने अपुनरुक्त प्रदेशबन्धस्थान पाये जावेंगे, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर सब योगस्थानोंके आठ भागों मेंसे छह भाग (है) प्राप्त होते हैं । पुनः सप्तविध बन्धकको प्रक्षेप अधिक क्रमसे उपरिम योगस्थानों के द्वारा बंधानेपर सब योगस्थानोंके आठवें भाग मात्र (1) ज्ञानावरणीयके प्रदेशबन्धस्थान पाये जाते हैं । फिर इसको पूर्वोक्त स्थानों में मिलानेपर सात बटे आठ भाग (४) होते हैं । अब यहां इतने ही ज्ञानावरणके प्रदेशबन्धस्थान पाये जाते हैं। अब सप्तविध और षड्विध बन्धकोंका आश्रय करके पाये जानेवाले स्थानोंकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- जघन्य योगस्थानसे बांधनेवाले षड्विध बन्धकके ज्ञानावरणद्रव्यसे उसकी अपेक्षा छठे भागसे अधिक योगस्थान द्वारा बांधनेवाले सप्तविध बन्धकका ज्ञानावरणद्रव्य समान होता है । पुनः सात प्रक्षेपोंसे अधिक योगस्थान द्वारा बांधनेवाले सप्तविध बन्धकके ज्ञानावरणद्रव्यसे षड्विध बन्धकके छह योगस्थान चढ़कर बांधनेवालेका ज्ञानावरणद्रव्य समान होता है। यहां पांच प्रदेशबन्धस्थान अपुनरुक्त पाये जाते हैं । छठा स्थान पुनरुक्त होता है, अतः उसको कम करना चाहिये । इस प्रकार उत्कृष्ट योगस्थानसे बांधनेवाले सप्तविध बन्धकके ज्ञानावरणद्रव्यसे उत्कृष्ट स्थानकी अपेक्षा सातवें भागसे हीन योगस्थान द्वारा बांधनेवाले षविध बन्धकके ज्ञानावरणद्रव्यके समान हो जाने तक ले जाना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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