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________________ ४, २, ४, २१३.] वेयणमहाहियारे वेयणदत्वविहाणे चूलिया [५०७ अटुं बंधमाणस्स णाणावरणदव्वं जहण्णजोगट्ठाणेण सत्तं बंधमाणस्स णाणावरणदव्वं च सरिसं होदि । एवं सरिसं कादूण अडविहबंधगो अट्ठपक्खेवाहियजोगट्ठाणेण सत्तविहबंधगो जहण्णजोगट्ठाणादो सत्तपक्खेवाहियजोगट्ठाणेण पुणो बंधावेदव्यो । एवं बंधे दोणं णणावरणदव्वं सरिसं होदि । एत्थ सत्तसु जोगट्ठाणेसु छज्जोगट्ठाणाणि अपुणरुत्ताणि लद्धाणि । सत्तमजोगट्ठाणं पुणरुतं, अवविहबंधगदव्वेण समाणत्तादो । तेण तमवणेदव्वं । पुणो वि अट्ठविहबंधगो अट्ठपक्खेवाहियोगट्ठाणेण बंधमाणो, सत्तपक्खेवाहियजोगट्ठाणेण बंधमाणों सत्तविहबंधगो च, सरिसा । एत्थ वि छ-अपुणरुत्तपदेसबंधट्ठाणाणि लभंति । सत्तमं पुणरुतं होदि । एवं णेदव्वं जाव वुक्कस्सजोगट्ठाणेण बंधमाणअट्ठविहबंधगणाणावरणदव्वेण तत्तो अट्ठमभागहीणजोगहाणेण बंधमाणसत्तविहबंधगणाणावरण दव्यं सरिसं जादेति । एत्थ अपुणरुत्तपदेसबंधट्ठाणेसु आणिज्जमाणेसु अट्ठमभागहीणसव्वजोगट्ठाणद्धाणमिच्छा कायव्वा । किमट्ठ माण कीरदे ? एत्तियमेत्तजोगट्ठाणेहि सत्तविहबंधगो उक्कस्सजोगट्ठाणं ण पत्तो त्ति । आठको बांधनेवालेका ज्ञानावरणद्रव्य और जघन्य योगस्थानसे सात प्रकृतियोंको बांधनेवाले का ज्ञानावरणद्रव्य सदृश होता है। इस प्रकार सहश करके आठ प्रक्षेप अधिक योगस्थानसे अधविध बन्धकको तथा जघन्य योगस्थानकी अपेक्षा सात प्रक्षेप अधिक योगस्थानसे सप्तविध बन्धकको फिरसे बंधाना चाहिये । इस प्रकार बन्ध होनेपर दोनोंका ज्ञानावरणद्रव्य सदृश होता है । यहां सात योगस्थानों में छह योगस्थान अपुनरुक्त पाये जाते हैं । सातवां योगस्थान पुनरुक्त है, क्योंकि वह अष्टविध बन्धकके द्रव्यसे समान है । अत एव उसको कम करना चाहिये । फिरसे भी आठ प्रक्षेप अधिक योगस्थानसे बांधनेवाला अष्टविध बन्धक, और सात प्रक्षेप अधिक योगस्थान से बांधनेवाला सप्तविध बन्धक, ये दोनों सदृश है । यहां भी छह अपुनरुक्त प्रदेशबन्ध. स्थान पाये जाते है । सातवां स्थान पुनरुक्त है। इस प्रकार तब तक ले जाना चाहिये जब तक कि उत्कृष्ट योगस्थानसे बांधनेवाले अविध बन्धकके ज्ञानावरणद्रव्यले उसकी अपेक्षा आठवें भागसे हीन योगस्थान द्वारा बांधनेवाले सप्तविध बन्धकका ज्ञानावरणद्रव्य समान न हो जावे। यहां अपुनरुक्त प्रदेशबन्धस्थानीको लाते समय आठवें भागसे रहित समस्त योगस्थानाध्वानको इच्छा राशि करना चाहिये। शंका- आठवें भागसे हीन किसलिये किया जाता है ? समाधान- चूंकि इतने मात्र योगस्थानोंसे सप्तविध बाधक उत्कृष्ट योगस्थानको नहीं प्राप्त हुआ है, अत एव उतना हीन किया गया है। आप्रती बंधमाणियस ' इति पाठः। अ-आ-काप्रतिषु सतबंधमाणणाणा-' इति पाठः । ३ अ-आ-काप्रतिषु · बंधमाणस्स', साप्रती · बंधमाणस्स (बंधमाणो)' इति पाठः । ४ अ-आ-काप्रतिषु 'किमहमाण' इति पाठः । ४ अप्रतौ 'एत्तियमेतहि जोगहाणेहि', आप्रतौ 'एलियमेत्तं जोगहाणेहि ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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