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________________ ४, २, ४, ११. ] यणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं [ १ उ कस्सपदे उक्कस्सपदं जहण्णपदे जहण्णपदं त्ति वृत्तं होदि । खविदकम्मंसियखविद-गुणिद-घोलमा णाणं उक्कड्डणादो एदस्स उक्कड्डणा बहुगी । तेसिं चैव तिण्णमाकडणादो एदेणेोकड्डिज्जमाणदव्वं थोवं ति उत्तं होदि । गुणिदकम्मंसियओोकड्डिज्जमाणदव्वादो तेणेव उक्कड्डिज्जमाणदव्वं बहुगमिदि किण्ण भण्णदे ? ण, विसोहिअद्धा तहाणुवलंभादो । एइंदिए णाणावरणुक्कस्सट्ठिदिबंधो सागरोवमस्स तिण्णिसत्तभागमेत्तो । तेण बंधेसमयादो एत्तियमेत्ते काले गदे पयदसमयपबद्धस्स सव्वे परमाणू परिसदंति । तदो णत्थि उक्कड्डणाए पओजणमिदि १ ण, सागरोवमतिष्णिसत्तभागमेत्ते काले अदिक्कते पयदसमयपबद्धस्स ण सव्वे कम्मक्खंधा गलेति, उक्कडणाए वड्डाविदट्ठिदिसंतत्तादो । तं पि कुदो णव्वदे ? बेसागरोवमसहस्सेहि ऊणियं कम्मविदिमच्छिदो ति सुत्तण्णहाणुववत्ती दो । जदि एवं तो अनंतकाल - ' उक्कस्लपदे ' से 'उक्कस्लपदं' और 'जहण्णपदे' से ' जहण्णपदं ' ऐसी प्रथमा विभक्तिका अभिप्राय है । क्षपितकर्माशिक जीवके क्षपित-गुणित और घोलमान कर्माके उत्कर्षणसे इसका उत्कर्षण बहुत है । और उन्हीं तीनके अपकर्षणसे इसके द्वारा अपकर्षित किया जानेवाला द्रव्य थोड़ा है, यह उसका फलितार्थ है । शंका- गुणितकर्माशिकके अपकर्षमाण द्रव्यसे उसके ही द्वारा उत्कर्षमाण द्रम्य बहुत है, ऐसा क्यों नहीं कहते ? समाधान – नहीं, क्योंकि, विशुद्धिकालमें वैसा नहीं पाया जाता । शंका - एकेन्द्रियोंमें ज्ञानावरणका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक सागरोपमके सात भागों में से तीन भाग प्रमाण होता है । इसलिये बन्धसमयसे लेकर इतने कालके वीतनेपर प्रकृत समयप्रबद्ध के सब परमाणू निजीर्ण हो जाते हैं । इस कारण प्रकृत में ऐसे उत्कर्षणसे कुछ प्रयोजन नहीं है ? समाधान नहीं, सागरोपमके सात भागों में से तीन भाग मात्र कालके वीतने पर प्रकृत समयप्रबद्धके सब कर्मस्कन्ध नहीं गलते, क्योंकि, उत्कर्षण द्वारा उनका स्थितिसरव बढ़ा लिया जाता है । शंका- वह भी किस प्रमाणसे जाना जाता है ? 3 समाधान -' दो हजार सागरोपमोंसे कम कर्मस्थिति प्रमाण काल तक रहा यह सूत्र अन्यथा बन नहीं सकता, अतः जाना जाता है कि स्थितिसत्त्व बढ़ा लिया जाता है । शंका - यदि ऐसा हो तो अनन्त काल तक उत्कर्षणा कसकर संचयका क्यों नहीं . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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