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________________ ४२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, २, ४, ११. मुक्कड्डाविय किण्ण संचओ घेप्पदे १ ण, कम्मक्खंधाणं तेत्तियमेत्तकालमुक्कड्डणसत्तीए अभावादो । तं पि कुदो णव्वद ? वत्तिकम्मट्ठिदिअणुसारिणी सत्तिकम्मद्विदि त्ति वयणादो । बहुसो बहुसो बहुसंकिलेस गदो त्ति सुत्तादो चेव विदिबंधबहुत्तमुक्कड्डणाबहुत्तं च सिद्धं, तदो णिरत्थयमिदं सुत्तमिदि ? होदि णिरत्थयं जदि कसायमेत्तमुक्कड्डणाए कारणं, किंतु तिव्वमिच्छतं अरहंत-सिद्ध-बहुसुदाइरियच्चासणा तिव्वकसाओ च उक्कड्डणाकारणं । तेण ण णिरत्थयमिदं सुत्तं। अधवा 'उवरिल्लीणं द्विदीणं णिसेयस्स' एदस्स सुत्तस्स एवमत्थपरूवणा कायव्वा । तं जहा- बज्झमाणुक्कड्डिज्जमाणपदेसग्गं णिसिंचमाणो गुणिदकम्मंसिओ अंतरंगकारणसहाओ पढमाए हिदीए थोवं णिसिंचदि, बिदियाए विसेसाहियं, तदियाए विसेसाहियं, एवं प्रहण किया जाता? समाधान नहीं, क्योंकि, कर्मस्कन्धोंकी उतने काल तक उत्कर्षणशक्तिका अभाव है। - शंका- वह भी किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-' व्यक्त अवस्थाको प्राप्त हुई कर्मस्थितिका अनुसरण करनेवाली शक्ति रूप कर्मस्थिति होती है' इस वचनसे जाना जाता है । शंका-' बहुत बहुत वार बहुत संक्लेशको प्राप्त हुआ' इस सूत्रसे ही स्थितिबन्धकी अधिकता और उत्कर्षणकी अधिकता सिद्ध है, अतः यह सूत्र निरर्थक है ? समाधान -- यदि कषाय मात्र ही उत्कर्षणका कारण होता तो वह सूत्र निरर्थक होता। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, तीव्र मिथ्यात्व व अरहंत, सिद्ध, बहुश्रुत एवं आचार्यकी अत्यासना अर्थात् आसादना और तीन कषाय उत्कर्षणका कारण है । इस कारण यह सूत्र निरर्थक नहीं है। ___ अथवा 'उपरिम स्थितियोंके निषेकका' इस सूत्रके अर्थका इस प्रकार कथन करना चाहिये। यथा- बध्यमान और उत्कर्षमाण प्रदेशाग्रको निक्षिप्त करता हुआ गुणितकर्माशिक जीव अन्तरंग कारण वश प्रथम स्थितिमें थोड़े प्रक्षिप्त करता है । द्वितीय स्थितिमें विशेष अधिक प्रक्षिप्त करता है । तृतीय स्थितिमें विशेष अधिक प्रक्षिप्त करता १ अ-आ-का प्रतिषु ' -मुक्कड्डणाविय ' इति पाठः । २ अ-का-सप्रतिषु तदो तण्णिरत्थय ', आप्रतौ 'तदो ताणिरत्थय ', मप्रतौ । तदो ण णिरत्थय.' इति पाठः। . ३पंचेव अधिकाया छज्जीवणिकाय महव्वया पंच। पवयणमाउ-पयत्था तेतीसच्चासणा भणिया ॥ मूला. १, १०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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