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४, २, ४, ११. ]
dr महाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
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विसेसाहियकमेण णिसिंचदि जा उक्कस्सट्ठिदिति । एसा णिसेयरचणा गुणिदकम्मंसियस्स होदिति कथं णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो । ण च पमाणं पमाणंतरमवेक्खदे, अणत्थापसंगादो ।
पदेसबंधविण्णासेण विणा उक्कड्डणापदेसरचणाए इदं सुत्तं किण्ण उच्चदे ? ण, बंधाणुसारिणीए उक्कड्डणाए पुधपदेसविण्णासाणुववत्तदो । पदेसविण्णासविसेस महोदूण सेसपुरिसोकक्कड्डणार्हितो गुणिदकम्मं सिओकड्डुक्कड्डणांण त्थावबहुत्तपटुप्पायणङ्कमिदं सुतं किण्ण भवे ? ण, बहुसो बहुसो संकिलेसं गदो त्ति सुत्तादो एदस्स अत्थपसिद्धीदो । चतित्यरादीणमासादणालक्खणमिच्छत्तेण विणा तिव्वकसाओ होदि, अणुवलंभादो |
है । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक विशेष अधिकके क्रमसे प्रक्षेप करता है । शंका यह निषेकरचना गुणितकर्माशिक जीवके होती है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
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समाधान इसी सूत्र से जाना जाता है । और एक प्रमाण दूसरे प्रमाणकी अपेक्षा नहीं करता, क्योंकि, ऐसा माननेपर अनवस्था दोषका प्रसंग आता है ।
शंका- - यह सूत्र बंधनेवाले प्रदेशोंकी रचनाका निर्देश नहीं करता, किन्तु उत्कर्षणको प्राप्त होनेवाले प्रदेशोंकी रचनाका निर्देश करता है; ऐसा व्याख्यान क्यों नहीं करते ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, उत्कर्षण बन्धका अनुसरण करनेवाला होता है, इस लिये उसमें दूसरे प्रकारसे प्रदेशोंकी रचना नहीं बन सकती ।
शंका- प्रदेशविन्यासविशेषके लिये न होकर शेष पुरुषोंके अपकर्षण और उत्कर्षणकी अपेक्षा गुणितकर्माशिक के अपकर्षण और उत्कर्षणके अल्पबहुत्वको बतलाने के लिये यह सूत्र क्यों नहीं हो सकता ?
समाधान - नहीं, क्योंकि, 'बहुत बहुत वार संक्लेशको प्राप्त हुआ ' इस सूत्र से उस अर्थकी सिद्धि हो जाती है । और तीर्थकरादिकों की आसादना रूप मिथ्यात्व के विना तीव्र कषाय होती नहीं, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता । तथा इस प्रकारकी कषाय
१ अ आ का प्रतिषु णावं धोवबहुत ' इति पाठः ।
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२ प्रतिषु ' कदों ' इति पाठः ।
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