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________________ ७८ ] छपखंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ४, २८. । जवमज्झादो उवरिमदव्वं पि जवमज्झप्पमाणेण कदे एत्तियं चैव होदि | | | कुदो ? असंतेगचरिमगुणहाणिदव्वजवमज्झदव्वपवेसादो । एदाणि दे। वि दव्वाणि मेलाविदे रुवाहियतिण्णिगुणहाणिमेत्तजवमज्झाणि होंति । तत्थेगरूवमवणेदव्वं पुव्वप्पवेसिदजवमज्झस्स असंतस्स अवणयणङ्कं |२२|| एवमव्वुप्पण्णजणवुप्पायण' तिष्णिगुणहाणिमेत्तजवमज्झाणि ति त्ति परूविदं । सुहुमबुद्धीए णिहालिज्जमाने किंचूणतिष्णिगुणहाणिमेत्तजवमज्झाणि होंति । तं जहा - जहणजो गट्ठाण जीवेहि ऊणपढम चरिमगुणहाणिजीवाणमेत्थासंताणमहियत्तुवलंभादो । तमहियदव्वं संदिट्ठीए चोदसुत्तरसदमेत्तं । ११४) । अत्थदो असंखेज्जाणि' जवमज्झाणि । उदाहरण – ३ + ३ = ६ यवमध्य । यवमध्य से उपरिम द्रव्यको भी यवमध्यके प्रमाणसे करनेपर इतना ही होता है६ यवमध्य, क्योंकि, यहां अविद्यमान एक अन्तिम गुणहानिका द्रव्य यवमध्योंके द्रव्य में मिलाया गया है । उदाहरण- - यवमध्यका उपरिम द्रव्य ८०६, अन्तिम गुणहानिका द्रव्य २६; कुल जोड़ ८३२ । यहां ८३२ में यवमध्यके द्रव्य १२८ का भाग देनेपर ६३ यवमध्य आते हैं । यवमध्यकी उपरिम गुणहानि ५ है । उनका कुल द्रव्य ८०६ मात्र होता है । किन्तु इसमें अन्तिम गुणहानिका द्रव्य २६ दुवारा मिलाकर ६ यवमध्य प्राप्त किये गये हैं । इन दोनों ही द्रव्योंको मिलानेपर एक अधिक तीन गुणहांनि मात्र यवमध्य होते हैं । उनमें पूर्व प्रवेशित अविद्यमान यवमध्यको कम करनेके लिये एक अंक कम करना चाहिये १२ । इस प्रकार अव्युत्पन्न जनोंके व्युत्पादनार्थ 'तीन गुणहानि मात्र यवमध्य होते है ' ऐसा कहा है । किन्तु सूक्ष्म बुद्धिसे देखनेपर कुछ कम तीन गुणहानि मात्र यवमध्य होते हैं । इसका कारण यह है कि यहां पर जघन्य योगस्थान के जीवोंसे कम प्रथम व अन्तिम गुणहानिके जीवोंकी, जो यहां अविद्यमान हैं, अधिकता पायी जाती है । वह अधिक द्रव्य संदृष्टिमें एक सौ चौदह ११४ मात्र है । अर्थसंदृष्टिकी अपेक्षा असंख्यात यवमध्य प्रमाण है । - उदाहरण – ६३ + ६३ १३ यवमध्य | किन्तु इनमें यवमध्यकी संख्या १२८ दो बार सम्मिलित हो गई है अतः १ यवमध्य कम कर देनेपर कुल १२ यवमध्य रहते हैं । १ प्रतिषु ' -मव्युप्पण्णअण्णमप्पायण ' इति पाठः । Jain Education International २ सप्रतौ ' संखेज्जाणि ' इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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