SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ., १, १, ५५. वेषणमहाहियारे वेषणदबबिहाणे सामिल भमियवाणेण ओसारिदासेसराग-दोस-मोहत्तादो । एवं जोगावासो सुहमणिगोदेसु परूविदो । बहुसो बहुसो मंदसंकिलेसपरिणामो भवदि ॥ ५५॥ जाब सक्कदि ताव मंदसंकिलेसो चेव होदि । मंदसंकिलेससंभाभाये उक्कस्ससंकिलेसं पि गच्छदि । कधभेदं णव्वदे ? ' बहुसो' णिद्देसण्णहाणुववत्तीदो । किमई बहुमो मंदसंकिलेसं णीदो ? रहस्सहिदिणिमितं । कसाओ द्विदिवंधस्स कारणमिदि कधं गम्वदे! कालविहाणे द्विदिबंधकारणकसाउदयवाणपरूवणादो। जहण्णाद्विदीए एत्य किं पोजणं १ ण, मोबहिदासु विदथूलगोबुच्छाहितो बहुपदेसणिज्जवलंभा।। अधबा, बहुवोकड्डणटुं' है, क्योंकि, महाकर्मप्रकृतिप्राभृतरूपी भनृतके पान उनका मस्त राग, ३५ और मोर दूर हो गया है। इसलिये घे असम्बद्ध अर्थकी भरणा नहीं कर सातास प्रकार सूक्ष्म निगेदिजीवों में योगायासकी प्रपणा की। बहुत बहुत बार मंद संक्लेश रूप परिणामोंसे युक्त होता है ॥ ५५ ॥ जब तक शाक्य हो तन तक मंद संपला रूप परिणामोसे ही रेता है। मंद संक्लेश रूप परिणामोंकी सम्भावना न होनेपर उत्कृष्ट संक्लेश को भी प्राप्त होता है। शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ! समाधान- भन्यथा सूत्रमें 'बहुसो' पदका निर्देश नहीं बन सकता है, मतः इसीसे जाना जाता है कि मंद संक्लेशके सम्भव न होजेपर जर र संक्लेशको भी प्राप्त हाता है। शंका- यह जीव बहुत पार मंद संक्लेशको किसलिये प्राप्त कराया गया है ? समाधान-शानावरण कर्मकी भल्प स्थिति प्राप्त करनेके लिये वहत पार मंद संक्लेशको प्राप्त कराया गया है। शंका-कषाय स्थितिबन्धका कारण है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है? समाधान- चूंकि कालविधान में स्थितिवन्धके कारणभूत कषायोद थानोंत्री प्ररूपणा की गई है, इससे जाना जाता है कि कषाय स्थितियन्धका कारण है। शंका- जघन्य स्थितिज्ञा यहां क्या प्रयोजन है? समाधान- नहीं, क्योंकि, स्थितियों स्तोक होनेपर पुछाएं स्थल पाई जाती है, जिससे बहुत प्रदेशौकी निर्जरा देखो जाती है। यही यहां अधए स्थिते कहने का प्रयोजन है। १ अ.भा-काप्रति — दबोकरणई ', तापता दक्ष कर (क) 'इते पार ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy