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________________ २०१० रबडागमे वेयणासं [१, २, ४, ५५. मंदसंकिलेसं णीदो । एवं संकिलेसावासो परूविदो । एवं संसरिदूण बादरपुढविजीवपज्जत्तएसु उववण्णो ॥५६ ।। एवं पुव्वुत्तछहि आवासएहिं सुहुमणिगोदेसु संसरिद्रण बादरपुढविजीवपज्जत्तरसुवः गणो । सुहमणिगोदेहितो णिग्गंतूण मणुस्सेसु चेव किण्ण उप्पण्णो ? ण, सहुमणिगोदेहितो भण्णस्थ अणुप्पज्जिय मणुस्सेसु उप्पण्णस्स संजमासंजम-सम्मत्ताणं' चेव गहणपाओग्गत्तुबलंभादो ! जदि एवं तो मग्मत्त-संजमा जमकंदयकरणणिमित्तं भगुस्सेसुप्पज्जमाणो पादरपुढविकाइएसु अणुप्पब्जिय मणुस्सेसु चेव किण्ण उप्पज्जंद ? ण, सुहुमणिगोदेहितो णिग्गयस्स सव्वलहुएण कालेग संजमासंजमरगहणाभावादो । बादरपुढविपज्जत्तएसु चेव किमहमुप्पाइदो १ ण, अपज्जत्तेईितो जिग्गयरस सुबलहुश्ण कालेग संजमासंजमगहणा. भथवा, बहुत दृव्यका अपकर्पण कराने के लिये मंद संक्लेशको राया गया है । इस प्रकार संक्लेशाबासकी प्ररूपणा की। विशेषार्थ-~~ संक्लेश परिणाम मन्द हातले मानावरण कर्मका स्थितिबम्म कम होता है और उपरितन स्थिति में स्थित नियकों का अपकर्षण भी होता है। यही कारण है कि प्रकृती मंद संश्लेशके कथक दा प्रयोजन बतलाय है। इस प्रकार परिभ्रमण कर बादर पृथिवीकायिक पर्थ स जीवों में उत्पन्न हुआ।५६॥ इस प्रकार पूर्वोक्त छह भावासोके द्वारा सूक्ष्म निगादजीवोंमें परिभ्रमण कर बाहर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवाले उत्पन्न हुआ। शंका-- सूक्ष्म निगोदजीवोमले निकल कर मनुष्यों में ही क्यों नहीं उत्पन्न हुभा? समाधान-- नहीं, क्योंकि, सूक्ष्म निगोद जीवें मसे अन्यत्र न उत्पन्न होकर मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीवके संयमासंयम और सम्पायक ही प्रहणकी योग्यता पायी जाती है। शंका--- यदि ऐसा है तो लभ्यस्त्वकाण्डक और संयमासंयमकाण्डकोको करनेके लिये मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाला जीव बादर पृथिवीकायिकों में उत्पन्न न होकर मनुयोंमें ही क्यों नहीं उत्पन्न होता? समाधान --- नहीं, क्योंकि, सूक्ष्म निगोदोमेस निकले हुप जीयक सर्वलघु काल द्वारा संयमासंयमका ग्रहण नहीं पाया जाता। शंका- पादर पृथिवीकायिक पर्याप्तकोम किसलिये उत्पन्न कराया है ? समाधान .... नहीं, क्योंकि, अपर्याप्तकोसे निकले हुए जीवके सयेलधु काल द्वारा संयमासंयमके ग्रहणका अभाव है। ५ अ-आ-काप्रति 'समताणं' इति पाठः। १ अ-आ-काप्रति समत- ' इति पाद: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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