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________________ १, २, ४, ७०.] वैयणमहाहियारे वेयणदयविहाणे सामित्तं [ २९३ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तअप्पदरकालभंतरे केत्तियाओ ठिदिखंडयसलागाओ लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताओ ठिदिखंडयसलागाओ लब्भंति । एत्थ चदुहि आवत्तेहि सिरसाणं पबोहो' उपादेदव्यो । पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तट्ठिदिखंडएहि अंतेोकोडाकोडिं घादिय सागरोवमतिण्णिसत्तभागमेत्तहिदिसंतकम्मे दृविदे को लाहो जादो त्ति पुच्छिदे उच्चदे-अंतोकोडाकोडिसागरोवमेसु समयाविरोहेण विहंजिदूण ठिदिकम्मपदेसेसु सागरावमतिण्णिसत्तभागम्मि ओवट्टिदूण पदिदेसु गोउच्छाओ थूला होदूण णिज्जरंति त्ति एसो लाहो । एवं कम्मं हदैसमुप्पत्तियं कादण पुणरवि बादरपुढविजीवपज्जत्तए सु किमट्टमुप्पाइदो ? पुणरवि संजमादिगुणसेडीहि कम्मणिज्जरणटुं । सुहुमणिगोदपज्जत्तएसु उप्पण्णपढमसमयपदेससंतादो पुणरवि बादरपुढविपज्जत्तएसु उप्पण्णपढमसमयसंतकम्मं संखेज्जभागहीणं, अप्पदरकालेण णिज्जिण्णासंखेज्जदिभागमेत्तदव्वादो। भाग प्रमाण अल्पतरकाल के भीतर कितनी स्थितिकाण्डकशलाकायें प्राप्त होंगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगणित इच्छा राशिको भाजित करनेपर पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिकाण्डकशलाकायें प्राप्त होती हैं। यहां चार आवतों द्वारा शिष्योंको विशेष ज्ञान उत्पन्न कराना चाहिये । शंका-- पत्योपमके असंण्यातवें भाग प्रमाण स्थितिकाण्डकों द्वारा अन्तःकोटाकोटि प्रमाण स्थितिको घात कर सागरोपमके सात भागोंमेंसे तीन भाग (3) प्रमाण स्थितिसत्व स्थापित करने में कौनसा लाभ है ? समाधान--- अन्तःकोटाकोटि सागरोपमोमें समयाविरोधसे विभक्त कर स्थित कर्मप्रदेशोंके सागरोपमके सात भागोंमेंसे तीन भागोंमें अपकर्षित होकर पतित होनेपर गोपुच्छायें स्थूल होकर निर्जराको प्राप्त होने लगती है, यह लाभ है। शंका- इस प्रकार कर्मकी ह्रस्वीकरण क्रिया करके फिरसे भी बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तकोंमें किसलिये उत्पन्न कराया ? समाधान-फिर भी संयमादि गुणश्रेणियों द्वारा कर्मनिर्जरा करानेके लिये उनमें उत्पन्न कराया है। सूक्ष्म निगोद पर्याप्तकोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें जितना प्रदेशसस्व था उसकी अपेक्षा फिरसे बादर पृयिवीकायिक पर्याप्तकों में उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें जो प्रदेशसव रहा है वह उससे संण्यातवें भागसे हीन है, क्योंकि, अल्पतरकालके भीतर बन्धकी अपेक्षा असंख्यातवें भाग मात्र अधिक द्रव्यकी ही निर्जरा हुई है। । अ आ-काप्रतिषु पबोह' इति पाठः। २ मप्रती 'हरपति पाठः । ३ काप्रती 'गिग्निपण' इति पा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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