SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 315
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५४ ] छक्खडागमे यणाखंड [ ४, २, ४, ७१. एवं णाणाभवग्गहणेहि अट्ठ संजमकंडयाणि अणुपालइत्ता चदुक्खुत्तो कसा उवसामइत्ता' पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि संजमा संजम कंडयाणि सम्मत्तकंडयाणि च अणुपालइत्ता एवं संसरिदूण अपच्छिमे भवग्गहणे पुणरवि पुव्वको डाउएस मणुसेसु उवण्णों ॥ ७१ ॥ एदेण सुत्ते संजम संजमा संजम सम्मत्तकंडयाणं कसाय उवसामणाए च संखा परूविज्जदे । तं जहा - चदुक्खुत्ते संजमे पडिवण्णे एगं संजमकंडयं होदि । परिसाणि अट्ठ चैव संजमकंडयाणि होंति, एत्तो उवरि संसाराभावादो । अट्ठसु संजम कंड सुच चत्तारि चैव कसायउवसामणवारा । एत्थ जं जीवट्ठाणचूलियाए चारित्तमोहणीयस्स उवसामणविहाणं दंसणमोहणीयस्स उवसामणविहाणं च परूविदं तं परूवेदव्वं । संजमासंजम - कंडयाणि पुण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागगेत्ताणि । संजमासंजमकंडएहिंतो सम्मत्तकंडयाणि विसेसाहियाणि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि । कधमेदं णव्वदे ? इस प्रकार नाना भवग्रहणोंके द्वारा आठ चार संयमकाण्डकों का पालन करके, चार वार कषायोंको उपशमा कर, पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र संयमासंयमकाण्डकों व सम्यक्त्त्वकाण्डकों का पालन कर इस प्रकार परिभ्रमण कर अन्तिम भवग्रहण में फिर भी पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ || ७१ ॥ इस सूत्र के द्वारा संयम, संयमासंयम और सम्यक्त्वके काण्डकोंकी तथा कषायोपशामनाकी संख्या कही गई है । यथा - चार बार संयमको प्राप्त करनेपर एक संयमकाण्डक होता है । ऐसे आठ ही संयमकाण्डक होते हैं, क्योंकि, इससे आगे संसार नहीं रहता । आठ संयमकाण्डकोंके भीतर कषायोपशामनाके वार चार ही होते हैं । जीवस्थान - चूलिकामें जो चारित्रमोहके उपशामनविधानकी और दर्शनमोहके उपशामनविधान की प्ररूपणा की गई है, उसकी यहां प्ररूपणा करना चाहिये । परन्तु संयमासंयमकाण्डक पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं । संयमासंयमकाण्डकोसे सम्यक्त्वकाण्डक विशेष अधिक हैं जो पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र हैं। यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? शंका 3 ---- ● अप्रतौ ' उवसावतादो', आ-काप्रत्योः ' उवसामइत्तादो' इति पाठः । २ अप्रतौ ' पलिदो ० संखे ०', • पलिदोवमस्त संखेज्जदि ' इति पाठः । ३ अ आप्रत्योः ' अपच्छिम ' इति पाठः । कापतौ Jain Education International ४ पहा संखियभागोणकम्मठिहमकिओ निगोए । सुहमेस ( सु ) भवियजोग्गं जहन्नयं कट्टु निग्गम्म ॥ भोग्गेस (सु) संखवारे सम्मतं लमिय देसविरयं च । अट्ठवखुतो विरई संजोयणहा य तवारे || 'चउरुवसमित मोहं हुं खवेंतो भवे खवियकम्मो । पाएण तर्हि पगयं पटुच्च कार्ड ( ओ ) वि सविसेसं ॥ क. प्र. २, ९४-९६ For Private & Personal Use Only ु www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy