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________________ २९१ छपखंडागमे वेयणाखंड (१, २, ४, ७०. तरिय पयमाणे आगमादो णिज्जराए थोवत्ताभावादो । ठिदिखंडयं घादयमाणो जदि पहुसो पज्जत्तेसु चेव उप्पज्जदि तो 'बहुआ अपज्जत्तभवा, थोवा पज्जत्तभवा' इच्चेदेण सुत्तेण विरोहो किण्ण जायदे १ ण, तस्स सुत्तस्स भुजगारकालविसयत्तादो पलिदोवमस्स असंखेअदिभागेणूणकम्माडिदिविसयत्तादो वो । संजदचरो असंजदसम्माइट्ठी देवो सव्वलहुएण कालेण मुहुमेइंदिएसु उववज्जमाणो पज्जत्तएसु चेव उप्पज्जदि त्ति वा ण पुव्वुत्तदोससंभवो। पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तेहि ठिदिखंडयघादेहि पलिदोवमस्त असंखेज्जदिभागमेत्तेण कालेण कम्मं हदसमुप्पत्तियं कादूण पुणरवि बादरपुढविजीवपज्जत्तएसु उववण्णो ॥ ७॥ __ पलिदोषमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताओ ठिदिखंडयसलागाओ होति त्ति कधं णव्वदे ? जुत्तीदो । तं जहा- अंतोमुहुत्तमेत्तुक्कीरणद्धाएं जदि एगा द्विदिखंडयसलागा लन्भदि तो स्वभावसे ही प्रवर्तमान हुआ है, इसलिये इसमें आयकी अपेक्षा निर्जराका कम पाया जाना सम्भव नहीं है। शंका- स्थितिकाण्डकका घातनेवाला यदि बहुत बार पर्याप्तकों में ही उत्पन्न होता है तो 'अपर्याप्त भव बहुत हैं और पर्याप्त भव स्तोक हैं' इस सूत्रसे विरोध क्यों न होगा? समाधान-नहीं, क्योंकि, एक तो यह सूत्र भुजाकारकालको विषय करता है और दूसरे पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन कर्मस्थितिको विषय करता है, इसलिये पूर्वोक्त दोष नहीं आता । अथवा, जो पहले मनुष्य पर्याय में संयत रहा है ऐसा असंयतसम्यग्दृष्टि देव सर्वलघु काल द्वारा सूक्ष्म एकेन्द्रियों में उत्पन्न होता हुआ पर्याप्तकों में ही उत्पन्न होता है । इसलिये भी पूर्वोक्त दोषकी सम्भावना नहीं है। पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिकाण्डकघातशलाकाओंके द्वारा तथा पल्यापमके असंख्यातवें भाग प्रमाण कालके द्वारा कर्मको ह्रस्व करके फिर भी बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ ॥ ७० ॥ शंका- स्थितिकाण्डकशलाकायें पल्योपमके असंख्यातवे भाग प्रमाण होती हैं, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- वह युक्तिसे जाना जाता है । यथा- याद अन्तर्मुहर्त मात्र उत्कीरणकालमें एक स्थितिकाण्डकशलाका प्राप्त होती है तो पल्योपमके भसंख्पातवें १ *भा-काप्रतिषु 'मा' इतत्पदं नोपलभ्यते । २ अप्रतौ ' किंमहिद-', भाप्रती किम्महिंद', काप्रती “किम्मशिद-', मप्रतौ ' कम्बहर- ' इति पाठः। ३ अप्रतौ ' मेत्तुक्करणद्धाए', काप्रती 'मेसकरणदार', वाप्रती - मेषुवकर (क) णदाए' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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