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________________ १, २, ४, १२०. यणमहाहियारे वैयणदव्यविहाणे सामित समयतम्भवत्थस्स जहण्णुववादजोगो ण होदि त्ति जाणावणटुं पढमसमयआहारएण पढमसमयतम्भवत्येण आहारिदो पोग्गलपिंडो, थोवपदेसग्गहणटुं जहणेण उववादजोगेण आहारिदो त्ति भणिदं । जहणियाए वढीए वढिदो' ॥ ११८ ॥ एयंताणुवटिजोगाणं वड्डी जहण्णा वि अस्थि उक्कस्सा वि अस्थि । तत्थ जहण्णाए बड्डीए वड्डिद। त्ति जाणावणट्ठमेदं भणिदं । अंतोमुहुत्तेण सव्वचिरेण कालेण सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो ॥ ११९ ॥ दीहाए अपज्जत्तद्धार जहण्णएगंताणुवड्डिजोगेण थोवपोग्गलगहणटुं सवचिरेण कालेगेत्ति वुत्तं । किमट्ठमपज्जत्तकालो वड्डाविदो ? पज्जत्तद्धाए आउअस्स ओकडणाकरणादो अपज्जत्तद्धाए ओकडणा जहणजागेग बहुआ होदि त्ति जाणावणहूँ ।। तत्थ य भवहिदि तेत्तीसं सागरोवमाणि आउअमणुपालयतों बहुसो असादद्धाए वुत्तो ॥ १२० ॥ समयवर्ती आहारक होकर भी द्वितीय व तृतीय समयवर्ती तद्भवस्थ जीवके जघन्य उपपाद योग नहीं होता है, इस बातके शापनार्थ 'प्रथम समयवर्ती आहारक और प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ जीवने पुद्गलपिंडको आहार रूपसे ग्रहण किया, अर्थात् स्तोक प्रदेशों को ग्रहण करने के लिये जघन्य उपपाद योगसे आहारको प्राप्त हुआ' ऐसा कहा है। जघन्य वृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुआ ॥ ११८ ॥ एकान्तानुवृद्धि योगोंकी वृद्धि जघन्य भी है और उत्कृष्ट भी है। उनमें जघन्य वृद्धि द्वारा वृद्धिको प्राप्त हुआ, इस बातका परिक्षान कराने के लिये यह सूत्र कहा है। अन्तर्मुहूर्तमें सर्वदीर्घ काल द्वारा सब पर्याप्तियों से पर्याप्त हुआ ॥ ११९॥ दीर्घ अपर्याप्तकाल के भीतर जघन्य एकान्तानुवृद्धि योगसे स्तोक पुद्गलोंका प्रहण करने के लिये सर्वदीर्घ काल द्वारा ' ऐसा कहा है। __ शंका- अपर्याप्तकाल किसलिये बढ़ाया है ? समाधान - पर्याप्तकालमें जो आयुका अपकर्षण किया जाता है उसकी अपेक्षा अपर्याप्तकालमें जघन्य योगसे किया गया अपकर्षण बहुत होता है, इसके शापनार्थ अपर्याप्तकालको बढ़ाया है। वहां भवस्थिति तक तेतीस सागरोपम प्रमाण आयुका पालन करता हुआ बहुत वार असाताकाल ( असातावेदनीयक बन्ध योग्य काल) से युक्त हुआ ॥ १२० ॥ १ अ-आ-काप्रतिषु 'जहणिपाए वढीदो' इति पाठः। २ अ-आ-काप्रतिषु 'मणपालयंति पाठः । वाप्रती बहुसो महुसो' पति पाठः । ४ अ-आ-काप्रतिषु 'तो' इति पास। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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