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________________ ३३४] छक्खंडागमे वैयणाखंड १, २, ४, १२१. किमट्ठमसादद्धाए बहुसो जोजिदो ? ओकड्डणाए बहुदव्वणिज्जरणटुं । थोवावसेसे जीविदव्वए ति से काले परभवियमाउअंबंधिहिदि त्ति तस्स आउववेदणा दव्वदो जहणगा ॥ १२१ ॥ किमट्ठमाउअबंधपढमसमए जहण्णसामित्तं ण दिज्जदे ? ण, उदएण गलमाणगोवुच्छादो टुक्कमाणसमयपबद्धस्स असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो । अजोगिचरिमसमए एक्किस्से द्विदीए ट्ठिददव्वं घेतण जहण्णसामित्तं किण्ण दिज्जदे ? ण, तत्थ जहण्णबंधगद्धोवहिदसादिरेयपुवकोडीए एगसमयपबद्धम्मि भागे हिदे एगभागमेत्तद वुवलंगादो, दीवसिहादव्यस्स पुण दीवसिहाजण्णाउबंधगद्धोवहिदअंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेतभागहारुवलंभादो । एत्य उवसंहारो वुच्चदे। तं जहा- जहण्णबंधगद्धामेत्तसमयपबद्धे तेत्तीसणाणागुणहाणिसलागण्णाणभत्थरासिणा ओवट्टिदे चरिमगुणहाणिदव्वं होदि । पुणो दिवड्डगुणहाणीए ओवट्टिदे चरिमणिसेगदव्वं होदि । पुणो एदं भागहार दीवसिहाए ओवट्टिय लद्धं विरलेदूण शंका- बहुत वार असाताकाल से युक्त किसलिये कराया है ? समाधान- अपकर्षण द्वारा बहुत द्रव्यकी निर्जरा कराने के लिये बहुत बार असाताकाल से युक्त कराया है। जीवितके स्तोक शेष रहनेपर जो अनन्तर कालमें परमविक आयुको बांवेगा, उसके आयुवेदना द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य होती है ॥ १२१ ।। शंका- आयुबन्धके प्रथम समयमें जघन्य स्वामित्व क्यों नहीं दिया जाता है ? समाधान - नहीं, क्योंकि उदयसे निर्जीर्ण होनेवाली गोषुच्छाकी अपेक्षा भानेवाला समयबद्ध असंख्यातगुणा पाया जाता है। शंका- अयोगीके अन्तिम समयमें केवल एक स्थितिमें स्थित द्रव्यका प्रहण कर जघन्य स्वामित्व क्यों नहीं दिया जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, यहां जघन्य बन्धककालका साधिक पूर्वकोटिमें भाग देने पर जो लब्ध हो उसका एक समयप्रबद्ध में भाग देनेपर एक भाग मात्र द्रव्य पाया जाता है, परन्तु दीपशिखाद्रव्य का भागहार दीपशिखा सम्बन्धी जघन्य आयुबन्धक कालसे अपवर्तित अंगुलके असंख्यातर्फे भाग मात्र पाया जाता है। ___ यहां उपसंहार कहते हैं। यथा-जघन्य बन्धककाल मात्र समयप्रबद्धको तेतीस नाना गुणहानिशलाओंकी अन्योन्यापस्त राशिले अपवर्तित करनेपर अन्तिम गुणहानिका द्रव्य होता है। पुनः डेढ़ गुणहानिसे भाजित करने पर आन्तिम निषेकका द्रव्य होता है। पुनः इस भागहारको दीपशिखाले अपवर्तित कर जो प्राप्त हो For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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