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________________ १, २, ४, १७५.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया [४३७ जोगट्ठाणपरूवणदाए दस अणिओगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति । किमत्थमेत्थ जोगट्ठाणपरूवणा कीरदे ? पुग्विल्लम्मि अप्पाबहुगम्मि सव्वजीवसमासाणं जहण्णुक्कस्सजोगट्ठाणाणं थोवबहुत्तं चेव जाणाविदं । केत्तिएहि अविभागपडिच्छेदेहि फदएहि वगग्गणाहि वा जहण्णुक्कस्सजोगट्ठाणाणि होति त्ति ण वुत्तं । जोगट्ठाणाणं छच्चेव अंतराणि अप्पाबहुगम्मिपरूविदाणि । तदो तेसिमण्णत्थ णिरंतरं वड्डी होदि ति णव्वदे । सा च वड्डी सव्वत्थ किमवट्टिदा किमणवहिदा' किं वा वड्डीए पमाणमिदि एदं पि तत्थ ण परूविदं । तदो एदेसिं अपरूविदअत्थाणं परूवणहूँ जोगट्ठायपरूवणा कीरदे । किं जोगो णाम ? जीवपदेसाणं परिप्फंदो संकोच-विकोचभमणसरूवओ। " जीवगमणं जोगो, अजोगिस्म अघादिकम्मक्खएण वुटुं गच्छंतस्स वि सजोगत्तप्पसंगादो । सो च जोगो मण-बचि-कायजोगभेदेण तिविहो । तत्थ बज्झत्थचिंतावावदमणादो समुप्पण्णजीवपदेसपरिप्फंदो मणजोगो णाम । भासावग्गणक्खंधे भासारूवेण परिणामेंतस्स जीवपदेसाणं परिप्पंदो वचिजोगो णाम । वात-पित्त योगस्थानप्ररूपणतामें दस अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं । . शंका- यहां योगप्ररूपणा किसलिये की जाती है ? समाधान-पूर्वोक्त अल्पबहुत्वमें सब जीवसमासोंके जघन्य व उत्कृष्ट योगस्थानोंका अल्पबहुत्व ही बतलाया गया है। किन्तु कितने अविभागप्रतिच्छेदों, स्पर्द्धको अथवा वर्गणाओंसे जघन्य व उत्कृष्ट योगस्थान होते हैं, यह वहां नहीं कहा गया है। योगस्थानोंके छह ही अन्तर अल्पब हुत्वमें कहे गये हैं। इससे दूसरी जगह उनके निरन्तर वृद्धि होती है, ऐसा जाना जाता है। परन्तु वह वृद्धि सब जगह क्या अवस्थित होती है या अनवस्थित, तथा वृद्धिका प्रमाण क्या है। यह भी वहां नहीं कहा गया है । इसलिये इन अप्ररूपित अर्थोके प्ररूपणार्थ योगस्थानप्ररूपणा की जाती है। शंका- योग किसे कहते हैं ? समाधान-जीवप्रदेशोंका जो संकोच-विकोच व परिभ्रमण रूप परिष्पन्दन होता है वह योग कहलाता है । जीवके गमनको योग नहीं कहा जा सकता, क्योंकि, ऐसा माननेपर अघातिया कौके क्षयसे ऊर्ध्व गमन करनेवाले अयोगकेवलीके सयोगत्वका प्रसंग आवेगा। वह योग मन, वचन व कायके भेदसे तीन प्रकार है। उनमें बाह्य पदार्थके चिन्तनमें प्रवृत्त हुए मनसे उत्पन्न जीवप्रदेशोंके परिष्यन्दको मनयोग कहते हैं । भाषावर्गणाके स्कन्धोंको भाषा खरूपसे परिणमानेवाले व्यक्ति के जो जीवप्रदेशका परिष्पन्द , अ-आकाप्रतिषु ' किमवहिदा किं वहिदा', ताप्रती किमवडिदा, किं वहिदा' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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