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छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, २, ४, १७६. सेंभादीहि जणिदपरिस्समेण जादजीवपरिप्फंदो कायजोगो णाम । जदि एवं तो तिण्णं पि जोगाणमक्कमेण वृत्ती पावदि त्ति भणिदे- ण एस दोसो, जदहें जीवपदेसाणं पढमं परिप्फंदो जादो अण्णम्मि जीवपदेसपरिप्फंदसहकारिकारणे जादे वि तस्सेव पहाणत्तदंसणेण तस्स तव्ववएसविरोहाभावादो । तम्हा जोगट्ठाणपरूवणा संबद्धा चेव, णासंबद्धा त्ति सिद्ध । दसण्हमणिओगद्दाराणं णामणिद्देसट्टमुवरिमं सुत्तमा गदं -
__ अविभागपडिच्छेदपरूवणा वग्गणपरूवणारे फद्दयपरूवणा अंतरपरूवणा ठाणपरूवणा अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा समयपरूवणा वढिपरूवणा अप्पाबहुए ति ॥ १७६ ॥
एत्थ दससु अणिओगद्दारेसु अविभागपडिच्छेदपरूवणा चेव किमट्ठ पुव्वं परूविदा ? ण, अणवगएसु अविभागपडिच्छेदेसु उवरिमअधियाराणं परूवणोवायाभावादो। तदणंतरं
होता है वह वचनयोग कहलाता है। वात, पित्त व कफ आदिके द्वारा उत्पन्न परिश्रमसे जो जीवप्रदेशोंका परिष्पन्द होता है वह काययोग कहा जाता है।
शंका- यदि ऐसा है तो तीनों ही योगोंका एक साथ अस्तित्व प्राप्त होता है ?
समाधान-ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं कि यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जीवप्रदेशपरिष्पन्दके अन्य सहकारी कारणके होते हुए भी जिसके लिये जीवप्रदेशोंका प्रथम परिष्पन्द हुआ है उसकी ही प्रधानता देखी जानेसे उसकी उक्त संशा होने में कोई विरोध नहीं है।
इस कारण योगस्थानप्ररूपणा सम्बद्ध ही है, असम्बद्ध नहीं है, यह सिद्ध है। उन दस अनुयोगद्वारोके नामनिर्देशके लिये आगेका सूत्र प्राप्त होता है
__ अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्द्धकप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूप गा और अल्पबहुत्व, ये उक्त दस अनुयोगद्वार हैं ॥ १७६ ॥
शंका-- यहां दस अनुयोगद्वारोंमें पहिले अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणाका ही निर्देश किसलिये किया गया है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, अविभागप्रतिच्छेदोंके अशात होनेपर आगेके अधिकारोंकी प्ररूपणाका कोई अन्य उपाय सम्भव नहीं है।
मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-काप्रतिषु तस्सव तब्बवएस', ताप्रती तस्सेव तव्ववएस' इति पाठः। १ म-आ-काप्रतिषु ' तं जहा जोग', तापतौ त जहाजोग-' इति पाठः । ३ अ-आ-काप्रतिषु ' वग्गपरूपणा ' इति पाठः। ४ अविभाग-बग-फग-अंतर-ठाणं अणंतरोवणिहा । जोगे परंपरा-बुढि-समय-जीवप्पबहुगं च ॥ क.प्र.१,५..
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