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________________ १, २, ४, ७५.] यणमहाहियारे वैयणदश्वविहाणे सामित त्ति छदुमत्थो त्ति उप्पत्तीदो। एत्थ उपसंहारो उच्चदे- तस्स दुवे अणिओगहाराणि परूवणा पमाणमिदि । तत्थ ताव पवाइज्जतेण उवएसेण परूवणा उच्चदे । तं जहाणाणावरणीयस्स कम्मट्टिदिआदिसमए जं बद्धं कम्मं तस्स खीणकसायचरिमसमए एगो वि परमाणू णस्थि । कम्महिदिबिदियसमए जं बद्धं कम्मं तं पि णत्थि । एवं तदियचउत्थ पंचमादिसमएसु पबद्धं कम्मं खीणकसायचरिमसमए णस्थि तिणेदव्वं जाव पलि. दोवमस्स असंखेज्जदिमागमेतणिल्लेवणहाणाणं पढमवियप्पो ति। जिल्लेवणट्ठाणाणि पलिशेवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि चेव होति त्ति कथं णब्वदे ? कसायपाहुडचुण्णिसुत्तादो । तं जहा- कम्मट्ठिदिआदिसमए जं बद्धं कर्म तं कम्मढिदिचरिमसमए सुद्धं पिल्लेविजदि। तं चेष कम्मडिदिदुचरिमसमएँ वि सुद्धं पिल्लेविज्जदि । एवं तिचरिम-चदुचरिमादिसु वि सुखं णिल्लेविज्जदि त्ति भणिदण णेदव्वं जाव असंखेज्जाणि पलिदोवमपटमवग्गमूलाणि हेहदो ओसरिदण ट्ठिदसमओ ति। एवं सेससमयपषद्धाणं पि परवेदव्वमिदि । तदो यहां उपसंहार कहा जाता है.---- उसके प्ररूपणा और प्रमाण ये दो अनुयोगद्वार है। उनमें पहिले प्रवाह रूपसे आये हुए उपदेशके अनुसार प्ररूपणा कही जाती है। यथा----शानावरणीयका कर्मस्थितिके प्रथम समय में जो कर्म बांधा गया है उसका क्षीणकषायके अन्तिम समयमें एक भी परमाणु नहीं है। कर्मस्थितिक द्वितीय समयमें जो कर्म बांधा गया है वह भी नहीं है। इसी प्रकार तृतीय, चतुर्थ और पंचम भादि समयों में बांधा गया कर्म क्षीणकषायके अन्तिम समयमें नहीं है। इस प्रकार पल्योपमके असंख्यात भाग प्रमाण निर्लेपनस्थानोंके प्रथम विकल्पके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये। शंका- निलेपनस्थान पल्यापम के असंख्यातचे भाग प्रमाण ही होते है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है? समाधान--- यह कषायप्राभृतके चूर्णिसूत्रोंसे जाना जाता है। यथा-कर्मस्थितिके प्रथम समयमें जो कर्म बांधा गया है वह कर्मस्थितिके अन्तिम समयमें न होनेके कारण निर्जराको नहीं प्राप्त होता। वहीं कर्मस्थितिके द्विचरम समय में भी न होने के कारण निर्जराको नहीं प्राप्त होता। इसी प्रकार त्रिचरम और चतुश्वरम मादि समयों में भी न होने के कारण निर्जराको नहीं प्राप्त होता है। इस प्रकार कहकर पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल मांचे उतरकर स्थित समय तक के जामा चाहिये। इस प्रकार शेष समयप्रबद्धोंका भी कथन करना चाहिये । इसलिये अप्रती ' संहाण', आ-कारखी ' सत्य अणिओग-', श्रापतौ त्रुरितोऽत्र पाठः। इति पाठ ... १८. असंघाण' इति पाठः। १ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-का-ताप्रति अ-आ-काप्रति णिबिम्जदि' इति पाठः । ४ तापतौ चरिमर' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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