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________________ २९६ } छक्खंडागमे वेयणाखंड [ १, २, १, ७५. पदेसणिज्जरा असंखेज्जगुणा । तत्तो अणताणुबंधिं विसंजोजंतस्स समयं पडि गुणसेडीए पदेसणिज्जरा असंखेज्जगुणा । ततो दंसणमोहणीयं खतस्स पदेसणिज्जरा असंखेज्जगुणा । तत्तो चारित्तोहणीयमुवसा तस्स अपुवकरणस्स गुणसेडिणिज्जरा असंखेज्जगुणा । अणियट्टिस्स गुणसेडिणिज्जरा असंखेज्जगुणा । सुहुमसांपराइयस्स गुणसेडिणिज्जरा असंखेज्जगुणा । उवसंतकसायस्स गुणसेडिणिज्जरा असंखेज्जगुणा । तत्तो अपुव्वखवगस्स गुणसेडिणिज्जरा असंखेज्जगुणा । अणियट्टिखवगस्स गुणसेडिणिज्जरा असंखेज्जगुणा । सुहुमकसायखवगस्स गुणमेडिणिज्जरा असंखेज्जगुणा । तत्तो खीणकसायस्स गुणसेडिणिज्जरा असंखेज्जगुणा । सत्थाणसजोगिकेवलिस्स गुणसेडिणिज्जरा असंखेज्जगुणा । जोगणिरोहण वट्टमाणसजोगिकेवलिस्स गुणसेडिणिज्जरा असंखेज्जगुणा त्ति णिज्जराविसेसो जाणिदवो । तत्थ चारित्तमोहक्खवणविहाणं किमटुं ण लिहिज्जदे ? गंथबहुत्तभएण पुणरुत्तदोसभएण वा। चरिमसमयछदुमत्थो जादो। तस्स चरिमसमयछदुमत्थस्स णाणावरणीयवेदणा दव्वदो जहण्णा ॥ ७५॥ चरिमसमयछदुमत्थो णाम खीणकसाओ, छदुमं णाम आवरणं, तम्हि चिट्ठदि असंण्यातगुणी है । उससे अनन्तानुबम्धीका विसंयोजन करनेवालेके गुणश्रेणि द्वारा प्रतिसमय होनेवाली प्रदेशनिर्जरा असंख्यातगुणी है। उससे दर्शनमोहनीयका क्षय करनेवालेकी प्रदेशनिर्जरा असंख्यातगुणी है । उससे चारित्रमोहनीयका उपशम करनेवाले अपूर्वकरणवर्ती जीवकी गुणश्रेणिनिर्जरा असंख्यातगुणी है । उससे अनिवृत्तिकरणवर्ती जीवकी गुणश्रेणिनिर्जरा असंख्यातगुणी है। उससे सूक्ष्म साम्परायिककी गुणश्रेणिनिर्जरा असंख्यातगुणी है। उससे उपशान्तकषायकी गुणश्रेणिनिर्जरा असं. ख्यातगुणी है । उससे अपूर्वकरण क्षपककी गुणणि निर्जरा असंख्यातगुणी है। उससे अनिवृत्तिकरण क्षपककी गुणश्रेणिनिर्जरा असंख्यातगुणी है । उससे सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपककी गुणधेणिमिर्जरा असंख्यातगुणी है। उससे क्षीणकषायकी गुणश्रेणिनिर्जरा असंख्यातगुणी है । उससे स्वस्थान सयोगकेवलीकी गुणश्रेणिनिर्जरा मसं. ख्यातगुणी है । उससे योगनिरोध अवस्थाके साथ विद्यमान सयोगकेवलीकी गुणश्रेणिनिर्जरा असंख्यातगुणी है। इस प्रकार निर्जराकी विशेषता जानने योग्य है। शंका--- यहां चारित्रमोहके क्षपणका विधान किसलिये नहीं लिखते ? समाधान ग्रन्थकी अधिकताके भयसे अथवा पुनरुक्त दोषके भयसे उसे यहां नहीं लिखा है। पश्चात् अन्तिमसमयवर्ती छद्मस्थ हुआ ! उस अन्तिमसमयवर्ती छद्मस्थके ज्ञानावरणीयकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य है ॥ ७५ ।।। चरमसमयवर्ती छद्मस्थका दूसरा नाम क्षीणकषाय है, क्योंकि, छद्म नाम भावरणका है, उसमें जो स्थित रहता है वह उमस्थ है, ऐसी इसकी व्युत्पत्ति है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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