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________________ १०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१,२,२,२. (णेगम-ववहार-संगहा सव्वाओं ॥२॥) इच्छंति त्ति पुन्वसुत्तादो अणुवट्टावेदव्बो, अण्णहा सुत्तट्ठाणुववत्तीदो । णामणिक्खेवो दव्वट्ठियणए कुदो संभवदि ? एक्कम्हि चेव दव्वम्हि वट्टमाणाणं णामाणं तब्भवसामण्णम्मि तीदाणागय-वट्टमाणपज्जाएसु संचरणं पडुच्च अतदव्वववएसम्मि अप्पहाणीकयपज्जायम्मि पउत्तिदंसणादो, जाइ-गुण-कम्मेसु वट्टमाणाणं सारिच्छसामण्णम्मि वत्तिविससाणुवुत्तीदो लद्धदव्वववएसम्मि अप्पहाणीकयवत्तिभावम्मि पउत्तिदसणादो, सारिच्छसामण्णप्पयणामण विणा सहववहाराणुववत्तीदो च । कधं दव्वट्ठियणए कृवणणामसंभवो ? पडिणिहिज्जमाणस्स पडिणिहिणा सह एयत्तज्झवसायादो सब्भावासब्भावट्ठवणभेएण सव्वत्थेसु. अण्णयदसणादो च । आगम-णोआगम नैगम, व्यवहार और संग्रह नय सब वेदनाओंको स्वीकार करते हैं ॥ २॥ स्वीकार करते हैं, इसकी पूर्व सूत्रसे अनुवृत्ति करानी चाहिये; क्योंकि, उक्त पदकी अनुवृत्ति किये विना सूत्रका अर्थ नहीं बन सकता है। शंका- नामनिक्षेप द्रव्यार्थिक नयमें कैसे सम्भव है ? समाधान-चूंकि एक ही द्रव्यमें रहनेवाले नामों (संज्ञा शब्दों) की, जिसने अतीत, अनागत व वर्तमान पर्यायोंमें संचार करनेकी अपेक्षा 'द्रव्य' व्यपदेशको प्राप्त किया है और जो पर्यायकी प्रधानतासे रहित है ऐसे तद्भवसामान्यमें, प्रवृत्ति देखी जाती है; जाति, गुण व क्रिया में वर्तमान नामोंकी, जिसने पक्तिविशेषों में अनुवृत्ति होनेसे 'द्रव्य व्यपदेशको प्राप्त किया है और जो व्यक्तिभावकी प्रधानतासे रहित है ऐसे सादृश्यसामान्य में, प्रवृत्ति देखी जाती है; तथा सादृश्य सामान्यात्मक नामके विना शब्दव्यवहार भी घटित नहीं होता है, अतः नामनिक्षेप द्रव्यार्थिक नयमें सम्भव है। शंका-द्रव्यार्थिक नयमें स्थापनानिक्षेप कैसे सम्भव है ? समाधान-एक तो स्थापनामें प्रतिनिधीयमानकी प्रतिनिधिके साथ एकताका निश्चय होता है, और दूसरे सद्भावस्थापना व असद्भावस्थापनाके भेद रूपसे सब पदार्थों में अन्वय देखा जाता है; इसलिये द्रव्यार्थिक नयमें स्थापनानिक्षेप सम्भव है। १ णेगम-संगह-ववहारा सव्वे इच्छति । जयध. (च २ प्रतिषु चेव दव्वंतो वट्ट-' इति पाठः । ४ कापतौ वत्तिविससाणवलंभादो' इति पाठः। .) १, पृ. २५९, २७७. ३ प्रतिषु 'अत्थदव्व ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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