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________________ ४, २, ४, १२२ ] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामिसं [ ३३७ जहण्ण उववादजोगडाणादो सणिपंचिंदियपज्जत्तयस्स घोलमाणजद्दण्णजोगो असंखेज्जगुणो । एदेण जोगेण जं बर्द्ध कम्मं तं सगलपक्खेवकरणङ्कं' सेडीए असंखेज्जदिभागं तद्वाणपक्खेवभागहारं चिरलेदूण एगसमयपबद्धं समखंडं काढूण दिण्णे एक्केक्कस्स रूवस्स सगलपक्खेबपाणं पात्रदि । कभ्रमेदस्स एगरूत्रधरिदकम्मपिंडस्स पक्खेवसण्णाँ ? जोगपक्खेवकारियत्तादो । पुणो एत्थ एमसगलाक्खेवं तेत्तीस सागरोवमेसु णिसिंचमाणेण जमंगुलस्स असंखेज्जदिभागेण खंडिदूण एगखंड णारगचरिमसमर णिसितं तस्स विगलपक्खेवो सि सण्णा | कुदो ? ऊणीभूद सगलपक्खेवत्तादो । पुणो एगसमयपबद्धं णिसिंचमाणेण दीव - सिहाचरिमसमए जं णिसित्तं तम्मि विगलपकखेवपमाणेण कीरमाणे केवडिया विगलपक्खेवा होंति त्ति भणिदे एगसमयबद्धस्स सगलपक्खेव भागहारमेत्ता होंति । पुणो एदे सगलपक्खेवे कस्साम । तं जहा- अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तविगलपक्खेवे घेत्तण जदि एगो सगलपक्खेवो लग्भदि तो सेठीए असंखेज्जदिभागमेत्तविगलपक्खेवेसु किं लभामो त्ति पमाणेण अपर्याप्त जघन्य उपपाद योगस्थान से संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकका घोलमान जघन्य योग असंख्यातगुणा है । इस योगसे जो कर्म बांधा है उसे सकल प्रक्षेप रूपसे करने के लिये श्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण उस स्थान के प्रक्षेपभागहारका विरलन करके एफ समयबद्धको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति सकल प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है । शंका -एक अंक के प्रति प्राप्त इस कर्मपिण्डकी प्रक्षेष संज्ञा कैसे है ? समाधान - चूंकि वह योगप्रक्षेपका कर्ता है, अतः उसकी प्रक्षेप संज्ञा उचित है । यहां एक सकल प्रक्षेपका तेतीस सागरोपमोंमें प्रक्षेपण करनेवाले जीवके द्वारा अंगुलके असंख्यातवें भागसे खण्डित करके जो एक खण्ड नारकके अन्तिम समयमें दिया गया है उसकी विकल प्रक्षेप संज्ञा है, क्योंकि, वह ऊनीभूत सकल प्रक्षेप है । पुनः एक समयप्रवद्धका प्रक्षेपण करनेवाले जीवने दीपशिखा के अन्तिम समय में जिसे दिया है उसे विकल प्रक्षेपके प्रमाणसे करनेमें कितने विकल प्रक्षेप होते हैं, ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं कि वे एक समयप्रबद्धके सकल-प्रक्षेप-भागहार प्रमाण होते हैं । - ―――― अब इनको सकल प्रक्षेप रूपमें करते हैं । यथा - अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र विकल प्रक्षेपोंको ग्रहण कर यदि एक सकल प्रक्षेप प्राप्त होता है तो श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र विकल प्रक्षेपोंमें क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार फलगुणित Jain Education International - १ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिपु ' पक्खेत्रे करणटुं ' इति पाठः । २ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आका-ताप्रतिषु तद्वाणं-' इति पाठ: । ३ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु ' सण्णाओ' इति पाठः । छ. वे. ४३. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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