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________________ १३६ ] [ ४, २, १२२. पडि एगेगविसेसो पावदि । पुणो रूवूणदीवसिहासंकलणाए ओवट्टिय लद्धं विरलेदूण उवरिमविरलगाए एगरूवरिदं समखंडं काढूण दिण्णे विरलणरूवं पडि रूवूण दीवसि हा संकलनमेत्तगे|वुच्छविसेसा पावेंति । दुगो एदे उवरिमविरलणरूवधरिदेसु समयाविरहिण पक्खिचिय समकरणे कदे परिहीणरूवाणं पमाणं उच्चदे । तं जहा -- रूवाहियहेट्ठिमविरलणमेत्तद्धानं गंतून जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलगाए किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओट्टिदाए परिहाणिरूपाणि लभंति । एदाणि उवरिमविरलणाए अवणिय सेसेण एगसमयावद्वे भागे हिदे एगसमयपबद्धदीवसिहाए पडिद होदि । पुणो एदं जद्दण्णबंधगद्धाए गुणिदे दीवसिहासव्वदव्वं आगच्छदि । एवमाउअस्स जद्दण्णसामित्तं समत्तं । तव्वदिरित्तमजहण्णा ॥ १२२ ॥ छक्खंडागमे बेयणाखंड तं सव्व जगादो दीवसिहादव्वादो रूवाहियादिदव्वं तब्वदिरितं णाम । मजहणदव्ववेयणा | एदिस्से परूवण बंधगद्धामेत्तसमयबद्धाणं सव्त्रदव्यं सगलपक्खेवे कस्सामा । तं जहा तत्थ ताव एगसमयपबद्धस्स भणिस्सामो ति । सुहुमणिगोद अपज्जत्तयस्स विशेष प्राप्त होता है । पुनः एक कम दीपशिखा संकलनासे अपवर्तित कर लब्धका विरलन करके उपग्मि विरलन के प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त राशिको समखण्ड करके देनेपर विरलन राशिके प्रत्येक एकके प्रति एक कम दीपशिखा संकलना मात्र गोपुच्छविशेष प्राप्त होते हैं। फिर इनको उपरिम विरलन गशिके प्रत्येक अंकके प्रति प्राप्त राशि में समयाविरोध पूर्वक मिलाकर समीकरण करनेपर परिहीन रूपोंका प्रमाण कहते हैं । यथा - एक अधिक अधस्तन विरलन मात्र स्थान जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलनमें कितने अंकों की हानेि प्राप्त होगी, इस प्रकार प्रमाण राशिसे फलगुणित इच्छा राशिको अपवर्तित करनेपर परिहीन रूप प्राप्त होते है । इनको उपरिम विरलनमेंसे कम करके शेषका एक समयप्रबद्ध में भाग देनेपर एक समयप्रबद्ध सम्बन्धी दीपशिखाका प्रतिद्रव्य होता है । फिर इसको जघन्य बन्धककालसे गुणित करनेपर दीपशिखाका सब द्रव्य आता है । इस प्रकार आयु कर्मका अघन्य स्वामित्व समाप्त हुआ । जघन्य द्रव्यसे भिन्न अजघन्य द्रव्यवेदना है ॥ १२२ ॥ 3 अघन्य दीपशिखाद्रव्य से एक परमाणु अधिक, दो परमाणु अधिक आदि द्रव्य तद्व्यतिरिक्त कहा जाता है । वह सब अजघन्य द्रव्यवेदना है । इस द्रव्यवेदनाके प्ररूपणार्थ बन्धककाल मात्र समयप्रबद्धोंके सब द्रव्यको सकल प्रक्षेपमें करते हैं । यथा - उनमें पहिले एक समयप्रबद्ध के द्रव्यको सकल प्रक्षेप रूपसे करके बतलाते हैं । सूक्ष्म मिगोद १ अ-मा-काप्रतिषु 'सम्वजद्दष्ण इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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