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________________ ३३८ ] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [ ४, २, ४, ११२. फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ता सयलपक्खेवा आगच्छंति । संपहि दीवसिहाविगलपक्खेवं भणिस्सामो । तं जहा- दीवसिह वट्टिदअंगुलस्सासंखेज्जदिभागं विरलेदूण सगलपक्खेवं समखंडे काढूण दिण्णे दीवसिहामेतचरिमणिसेगा रूवं पडि पावेंति । पुणो रूवूणदीवसिहोवट्टिददुरूवाहियणिसगभागहोरण किरियं काऊण लद्धरूवेसु उवरिमविरलणाए सोहिदे सुद्ध सेसं दीवसिद्दा विगलपक्खेव भागहारो होदि । पुणे एदेण विगलपक्खेवपमाणेण उवरिमविरलणरूवचरिदेसु सोहिदेसु सेडीए असंखेज्जदिभागमैत्ता विगलपक्खेवा लब्भंति । पुणो एदे सगलक्खेवे कस्साम । तं जहा अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तविगलपक्खेवे रूवूणे' जदि एगो सगलपक्खेवो लब्भदि तो सेंडीए असंखेज्जदिभागउवरिमविरलणमेत्तविगलपक्खेवेसु केवडिए सगलपक्खेवे लभामो ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओट्टिदाए सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ता सगलपक्खेवा लब्भंति । - संपहि दीवसिहाचरिमगोवुच्छाए एगगोवुच्छविसेसे वि सेडीए असंखेज्जदिभागत्ता सगलपक्खेवा होंति । तं जहा - रूवाहियगुणहाणीए अंगुलस्स असंखेज्जदिभागं इच्छा राशिको प्रमाणसे अपवर्तित करनेपर श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र सकल प्रक्षेप आते हैं । - अब दीपशिखाके विकल प्रक्षेपको कहते हैं । यथा- दीपशिखा से अपवर्तित अंगुलके असंख्यातवें भागका विरलन करके सकलप्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर विरलन राशिके प्रत्येक एक अंकके प्रति दीपशिखा मात्र अन्तिम निषेक प्राप्त होते हैं । पुनः एक कम दीपशिखासे अपवर्तित ऐसे दो अधिक निषेकभागहारसे क्रिया करके जो अंक प्राप्त हों उनको उपरिम विरलन मेंसे कम करनेपर जो शेष रहे उतना दीपशिखाके विकल प्रक्षेपका भागहार होता है । पुनः इस विकल प्रक्षेपप्रमाणसे उपरम विरलन रूपधरितों में से कम करनेपर श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र विकल प्रक्षेप प्राप्त होते हैं । अब इनके सकल प्रक्षेप करते हैं । यथा - एक कम अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र विकल प्रक्षेपोंमें यदि एक सकल प्रक्षेष प्राप्त होता है तो श्रेणिके असंख्यातवें भाग उपरिम विरलन मात्र विकल प्रक्षेपोंमें कितने सकल प्रक्षेप प्राप्त होंगे, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेयर श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र सकल प्रक्षेप प्राप्त होते हैं । अब दीपशिखाकी अन्तिम गोपुच्छाके एक गोपुच्छविशेष में भी श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र सकल प्रक्षेप होते हैं । यथा - एक अधिक गुणहानिसे अंगुल के १ अप्रतौ ' निगलपक्खेत्रे सुत्तूण', आ-काप्रत्योः ' विगलपक्लेवे रूवून ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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