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________________ ३९६] . छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, २, ४, १४५. अवगदे खविद-गुणिदकम्मंसियाणं जोगधारासंचारो णादुं सक्किज्जदि त्ति जीवसमासाओ अस्सिदण जोगप्पाबहुगं वुच्चदे । कारणप्पाबहुगाणुसारी चेव कारियअप्पाबहुगमिदि जाणावणहूँ पदेसप्पाबहुगं वुच्चदे । कारणपुव्वं कज्जमिदि णायादो ताव कारणप्पाबहुगं भणिस्सामो सव्वत्थोवो सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो॥ एवं उत्ते सुहुमेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स पढमसमयतब्भवत्थस्स विग्गहगदीए वट्टमाणस्स जहण्णओ उववादजोगो घेत्तव्यो। पढमसमयआहारय पढमसमयतब्भवत्थस्स सुहुमेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ उववादजोगो किण्ण गहिदो ? ण, णोकम्मसहकारि. कारणबलेण जोगे उड्डिमागदे तत्थ जोगस्स जहण्णत्तंसंभवाभावादो। बादरेइंदियअपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो ॥१४६॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । कुदो ? बादरेइंदियलद्धिअपज्जसयस्स पढमसमयतब्भवत्थस्स विग्गहगदीए वट्टमाणस्स जहण्णउववादजोगादो हेट्टिमसुहु काशिककी योगधाराके संचारको जानना शक्य हो जाता है, अतः जीवसमासोंका भाश्रय कर योगअल्पहुत्वका कथन करते हैं । कारणअल्पबहुत्वके अनुसार ही कार्यअल्पबहुत्व होता है, इस बातको जतलानेके लिये प्रदेशअल्पबहुत्वका कथन करते हैं। कारणपूर्वक कार्य होता है, इस न्यायसे पहिले कारण अल्पबहुत्वको कहते हैं सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका जघन्य योग सबसे स्तोक है ॥ १४५॥ ऐसा कहनेपर उस भवके प्रथम समयमें स्थित हुआ व विग्रहगतिमें वर्तमान ऐसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके जघन्य उपपादयोगको ग्रहण करना चाहिये। शंका- आहारक होनेके प्रथम समयमें रहनेवाले व उस भवके प्रथम समयमें स्थित हुए सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके जघन्य उपपादयोगको क्यों नहीं ग्रहण करते? समाधान-नहीं, क्योंकि, नोकर्म सहकारी कारणके बलसे योगके वृद्धिको प्राप्त होनेपर वहां योगकी जघन्यता सम्भव नहीं है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका जघन्य योग उससे असंख्यातगुणा है ॥ १४६॥ गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, उस भवके प्रथम समयमें स्थित व विग्रहगतिमें वर्तमान ऐसे बादर एकेन्द्रिय लब्ध्य. .......................................... १ आ-काप्रत्योः ‘णादुः' इति पाठः। २ तापतौ ' तत्थ जहणत्त-' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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