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________________ १, २, ४, २०३ ] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया [४९९ तत्थण्णवड्ढीणमभावादो। एवं जहण्णजोगट्ठाणमस्सिदूण जहा चत्तारिवड्डीओ परूविदाओ तहाँ सबजोगट्ठाणाणि पुध पुध अस्सिदूण समयाविरोहेणे चत्तारिवड्ढिपरूवणा कायव्वा । तिण्णिवढि-तिण्णिहाणीओ केवचिरं कालादो होति ? जहण्णेण एगसमयं ॥२०२॥ तिण्णिवड्डि-तिण्णिहाणीओ त्ति वुत्ते आदिमाणं तिण्हं गहणं कायव्वं, असंखेज्जगुणवड्डि-हाणीणमुवरि पुध परूवणदंसणादो। असंखेज्जभागवड्डीए जहण्णेण एगसमयमच्छिदूर्ण बिदियसमए सेसतिणं वड्ढीणमेगवड्डिं चदुण्णं हाणीणमेगतमहाणिं वा गदस्स असंखेज्जभागवड्डिकालो जहण्णेण एगसमओ होदि । एवं सेसदोवड्डीणं तिण्णिहाणीणं च एगसमयपरूवणा कायव्वा। उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो ॥२०३ ।। एदस्स अत्थो वुच्चदे। तं जहा - एगजीवो जम्हि कम्हि वि जोगट्ठाणे विदो असंखेज्जभागवड्डिजोगं गदो । तत्थ एगसमयमच्छिदूण बिदियसमए तत्तो असंखेज्जदि प्रकार जघन्य योगस्थानका आथय करके जैसे चार वृद्धियोंकी प्ररूपणा की गई है वैसे ही पृथक् पृथक् सब योगस्थानोंका आश्रय करके समयाविरोधपूर्वक चार वृद्धियोंकी प्ररूपणा करना चाहिये।। तीन वृद्धियां और तीन हानियां कितने काल होती हैं ? जघन्यसे वे एक समय होती हैं । २०२॥ - 'तीन वृद्धियां और तीन हानियां' ऐसा कहनेपर आदिकी तीन वृद्धि हानियोंको ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, असंख्यातगुणवृद्धि और हानिकी पृथक् प्ररूपणा देखी जाती है। असंख्यातभागवृद्धिगर जघन्यसे एक समय रहकर द्वितीय समयमें शेष तीन वृद्धियोंमें किसी एक वृद्धि अथवा चार हानियाम किसी एक हानिको प्राप्त होनेपर असंख्यातभागवृद्धिका काल जघन्यसे एक समय होता है। इसी प्रकार शेख .दो वृद्धियों और तीन हानियों के एक समयकी प्ररूपणा करना चाहिये । उत्कर्षसे उक्त हानि-वृद्धियोंका काल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है ॥२०३॥ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है- एक जीव जिस किसी भी योगस्थानमें स्थित होकर असंख्यातभागवृद्धियोगको प्राप्त हुआ। वहां एक समय रहकर दूसरे समयमै उससे असंख्यातवें भागसे अधिक योगको प्राप्त हुआ। इस प्रकार ताप्रती 'चत्तारिवड्डीओ सहा' इति पाठः। २ अ आ-काप्रतिषु 'समयाविरोहोण' इति पाठः।३ प्रतिष लिविणवडटि-तिपिणहाणी' इति पाठः। ४ अप्रतौ -मस्सिदूण' इति पाठः। ५ अ-आ-काप्रति 'दोवदितिष्णिहाणीण' । इति पाठः। ६ वुड्डीहाणिचउक्कं तम्हा कालोत्थ अंतिमल्लीणं। अंतोमुत्तमावलिअसंखभागो ये सेसाणं ॥क.प्र.., ११. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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