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________________ ५०..] छखंडागमे वेयणाखंड [१, २, ४, २०४. मागुत्तरजोगं गदो। एवं दोपणमसंखेज्जभागवड्डिसमयाणमुवलद्धी जादा । तदो तदियसमए तत्तो असंखेज्जदिभागुत्तरमण्णजोगं गदो। तत्थ तिपिणमसंखेज्जभागवड्डिसमयाणमुवलट्टी जादा । एवं णिरंतरमसंखेज्जभागवहिं ताव कुणदि जाव उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो ति। तदो उवरिमसमए णिच्छएण अण्णवड्डीणमण्णहाणीणं वा गच्छदि ति । एवं सेसवडि-हाणीणं पि सगणामणिद्देसं काऊण उक्कस्सकालपरूवणा कायव्वा । असंखेज्जगुणवढि-हाणी केवचिरं कालादो होति ? जहण्णेण एगसमओ ॥ २०४॥ ___ असंखेज्जगुणवड्डिमसंखेज्जगुणहाणिं वा एगसमयं काऊण अणप्पिदवड्डि-हाणीणं गदस्स एगसमओ होदि । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ २०५॥ असंखेज्जगुणवड्डीए असंखेज्जगुणहाणीए वा सुट्ठ जदि बहुअं कालमच्छदि तो अंतोमुहुत्तं चेव । पुणो उवरिमसमए णिच्छएण अण्णवडि-हाणीओ गच्छदि त्ति जवमज्झादो हेहिमचदुसमइय-उवरिमतिसमइय-विसमइयजोगट्ठाणेसु चत्तारिवड्डि-हाणीयो अस्थि त्ति । तत्थच्छणकालो जहण्णेण एगसमयं, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । सेसजोगट्ठाणेसु परियट्टणकालो असंख्यातभागवृद्धिके दो समयोंकी उपलब्धि हुई । पश्चात् तृतीय समयमें उसकी अपेक्षा असंख्यातवें भागसे अधिक दूसरे योगको प्राप्त हुआ। वहां असंख्यातभागवृद्धिके तीन समय उपलब्ध होते हैं । इस प्रकार उत्कर्षसे आवलीके असंख्यातवें भाग काल तक निरन्तर असंख्यातभागवृद्धिको करता है । तत्पश्चात् आगेके समयमें निश्चयसे दूसरी वृद्धियों या हानियों को प्राप्त होता है । इसी प्रकार शेष वृद्धि हानियोंके भी अपने नामका निर्देश कर उत्कृष्ट कालकी प्ररूपणा करना चाहिये । असंख्यातगुणवृद्धि और हानि कितने काल होती हैं ? जघन्यसे वे एक समय होती हैं॥२०४॥ असंख्यातगुणवृद्धि अथवा असंख्यातगुणहानिको एक समय करके अविवक्षित वृद्धि या हानिको प्राप्त होनेपर एक समय होता है। उक्त वृद्धि व हानि उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल तक होती है ॥ २०५॥ असंख्यातगुणवृद्धि अथवा हानिपर यदि बहुत अधिक काल रहे तो वह अन्तमुहूर्त तक ही रहता है । इसके पश्चात् आगेके समयमें निश्चयसे दूसरी वृद्धि या हानिको प्राप्त होता है। इसी कारण यवमध्यसे नीचे के चार समय रहनेवाले और ऊपरके तीन समय व दो समय रहनेवाले योगस्थानोंमें चार वृद्धियां और हानियां होती हैं। वहां रहनेका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त है। शेष योगस्थानों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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