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________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, १२३. मुहुत्तसंकलणाए खंडिदं विरलिय उवरिमएगरूवधरिदपमाणं समखंडं करिय दादूण उवरिमरूवधीरदेसु सव्वत्थ अवणिदे पगदिसरूवेण गलिददव्वमवसिटुं होदि । पुणो अवणिददध्वं पि तप्पमाणेण कादूण भागहारो वड्ढावेदव्यो । तेसिं पक्खवरूवाणमाणयणं बुच्चदे । तं जहा- रूवूणहेट्टिमविरलणमेत्तेसु जदि एगा पक्खेवसलागा लब्भदि तो उवरिमविरलणसंखेज्जरूवेसु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए लद्धमेगरूवस्स असंखेज्जदिभागो। तं उवरिमविरलणसंखेज्जरूवेसु पक्खिविय तेण सगलपक्खेवे भागे हिदे पगडिसरूवेण णट्ठद्व्वं होदि । एदं पुध हविय पुणो विगिदिसरूवेण गलिददव्वं भणिस्साम।। तं जहा- संखेज्जरूवेहि ओवट्टिदपुवकोडिम्हि अंतोमुहुत्तणणिसेगमागहारेण संखेज्जरूवगुणिदेण अंतोमुहुत्तादि उत्तरसंखेज्जरूवगच्छसंकलणोवट्टिदेण रूवूणेण संखेज्जरूवोवट्टिदपुरकोडिं खंडिय तत्थेगखंडे पक्खित्ते पढमविगिदिगोवुच्छभागहारो होदि । पुणो एदं रूवूणजहण्णाउअबंधगद्धाए ओवट्टिय विश्लेदूण एगसगलपक्खेवं समखंडं कादण दिण्णे उसे एक कम अन्तर्मुहूर्तकी संकलनासे खण्डित कर लब्धका विरलन करके उपरिम विरलन राशिके एक अंकके प्रति प्राप्त राशिको समखण्ड करके देकर सर्वत्र उपरिम विरलन अंकोंके प्रति प्राप्त राशियोमैसे कम करने पर शेष रहा प्रकृति स्वरूपसे निजीर्ण द्रव्य होता है। फिर घटाये गये द्रव्यको भी उसके प्रमाणसे करके भागहारको बढ़ाना चाहिये। उन प्रक्षेप अंकों के लाने के विधानको कहते हैं । यथा - एक रूप कम अधस्तन चिरलन मात्र रूपोंमें यदि एक प्रक्षेपशलाका पायी जाती है तो उपरिम विरलनके संख्यात रूपोंमें कितनी प्रक्षेपशलाकायें प्राप्त होगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर एक रूपका असंख्यातवां भाग लब्ध होता है । उसको उपरिम चिरलनके संख्यात रूपोंमें मिलाकर उसका सकल प्रक्षेपमें भाग देनेपर लब्ध प्रकृति स्वरूपसे नष्ट द्रव्य होता है । इसको पृथक् स्थापित कर फिर विकृति स्वरूपसे निर्जीर्ण द्रव्यका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है संख्यात रूपोंसे अपवर्तित पूर्वकोटिमें, संख्यात रूपोसे गुणित व अन्तर्मुहूर्त आदि उत्तर संख्यात रूप गच्छसंकलनासे अपवर्तित ऐसे अन्तर्मुहूर्त कम निषेकभागहारमेंसे एक कम करने पर जो शेष रहे उसका संख्यात रूपोंसे अपवर्तित पूर्वकोटिमें भाग देकर जो एक भाग प्राप्त हो, उसको मिला देनेपर प्रथम विकृतिगोपुच्छका भागहार होता है । फिर इसको रूप कम जघन्य आयुके बन्धककालसे अपवर्तित करके विरलित कर एक सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देने पर विरलन अंकके प्रति एक रूप प्रतिषु सरूवेणहदव्वं ' इति पाठः। २ नापतौ ' एवं ' इति पाठः । ३ ताप्रती · पुश्वकोगहि' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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